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रयणसार
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अर्थ—ज्योतिष, वैद्यक, मंत्रों की विद्या द्वारा आजीविका करना, वातादि विकार रूप भूत-प्रेत आदि को उतारने के लिए झाड़ फूंक का व्यापार करना, धन-धान्य का ग्रहण करना ये सब कार्य श्रमाणों/ साधुओं/मुनिराजों के लिए दोष होते हैं । अष्टपाहुड ग्रंथ में आचार्य देव लिखते हैं
सम्महदि रक्खेदि य अट्ट झाएदि बहपयत्तेण । सा पाबमोहिदमदी तिरिक्ख जोणी ण समणो ।।५।। लिं० प्रा०||
अर्थात् मुनि होकर भी जो नाना प्रकार के प्रयत्नों/व्यापारों से परिग्रह का संचय करता है उसकी रक्षा करता है, तथा उसके निमित्त आर्तध्यान करता है, उसकी बुद्धि पाप से मोहित है, उसे श्रमण नहीं पशु समझना चाहिये । वह मुनि कहलाने का अधिकारी नहीं है [पृ० ६८४] ।
जो मुनि नेपाल रब हरेरा, गति, रेशम, गिल, मसा आदि देखकर ज्योतिष विद्या से आजीविका करते हैं, औषधि-जड़ी-बूटियाँ बताकर आजीविका करते हैं तथा जो भूत-प्रेत आदि के लिए झाड़ फूंककर, मंत्र-तंत्र विद्या आदि के द्वारा आजीविका करते वे मुनिभेषी मात्र व्यापारी हैं, उन्हें जिनलिंग को दूषित करने वाले ठग समझना चाहिये।
सम्यक्त्वविहीन मुनि ये पावारंभ-रया, कसाय-जुत्ता परिग्गहा-सत्ता । लोय ववहार-पउरा, ते साहू सम्म- उम्मुक्का ।।१०४।।
__ अन्वयार्थ (जे ) जो साधु ( पावारंभ-रया ) पाप और आरंभ में रत हैं ( कसाय-जुत्ता ) कषाय युक्त हैं ( परिग्गह आसक्ता ) परिग्रह में आसक्त हैं ( लोय-ववहार-पउरा ) लोक-व्यवहार में पटु/ प्रमग्न हैं ( ते साहू ) बे साधु ( सम्म उम्मुक्का ) सम्यग्दर्शन से उन्मुक्त/ रहित हैं।
अर्थ-जो साधु पाप और आरंभ में रत हैं, कषाय से युक्त हैं, परिग्रह में आसक्त, लोक व्यवहार में पटु, निमग्न हैं वे साधु सम्यग्दर्शन से रहित हैं ।
जिन साधुओं को हिंसादि पाप व पंचसूना आरंभ के दोष का भय