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स्यणसार अन्वयार्थ—( जो ) ( साहू ) साधु ( आरंभे ) आरंभ में ( धणधण्णे ) धन-धान्य में ( उवयरणे ) उपकरणों में ( कंखिया) आकांक्षा रखते हैं 1 ( तहा ) तथा ( असूया ) ईर्ष्यालु हैं ( वय-गुण-सीलविहीणा ) व्रत-गुण-शील से रहित हैं ( कसाय-कलहप्पिया ) कषाय वह कलहप्रिय हैं ( मुहरा ) वाचाल है। संत्र-विरोह-कुसीला ) संघ का विरोध करते हैं, कुशील हैं ( सच्छंदा ) स्वच्छंद हैं ( रहिय गुरुकुला ) गुरुकुल से रहित हैं ( मूढा ) अज्ञानी हैं ( रायादि सेवया ) राजा आदि की सेवा करते हैं ( ते ) वे ( जिण-धम्म विराहया ) जिनधर्म के विराधक साधु हैं।
अर्थ-जो साधु आरंभ में, धन्य-धान्य में, अच्छे-अच्छे/सुन्दर उपकरणों में आकांक्षा रखते हैं । गुणवानों या साधर्मियों में ईर्ष्या रखते हैं, व्रत-गुणशील से रहित हैं अर्थात् व्रतों में अतीचार अनाचार लगाते रहते हैं, कषाय की तीव्रता व कलह प्रिय स्वभावी है, व्यर्थ में बहुत बोलते हैं/बकवादी/वाचाल हैं, आचार्य संघ का, उनकी आज्ञा का विरोध करते हैं, कुशील है/व्रतों से च्युत हैं, मात्र बाह्य में नग्न हैं, स्वेच्छाचारी हैं, गुरुकुल में/गुरु या आचार्य संघ में नहीं रहते हैं, हेय-उपादेय के ज्ञान से च्युत हैं, स्व-पर विवेक से शून्य अज्ञानी हैं, राजा आदि की सेवा करते हैं। धनाढ्य पुरुषों की सेवा-चाकरी करते हैं वे साधु मात्र भेषधारी हैं। ये जिनधर्म के विराधक हैं।
श्रमणों को दूषित करने योग्य कार्य जोइस-वेज्जा-मंतोव-जीवणं वायवस्स ववहारं । धण-धण्ण-परिग्रहणं समणाणं दूसणं होई ।।१०३।।
अन्वयार्थ-( जोइस-वेज्जा-मंतोव-जीवणं ) ज्योतिष, वैद्यक, मंत्रों द्वारा उपजीविका/आजीविका चलाना ( वायवस्स ववहारं ) वातविकार का व्यापार-[भूत-प्रेत आदि का झाड़-फूक करने का व्यापार ] (धण-धण्ण-परिग्गहणं ) धन-धान्य आदि का ग्रहण करना ये सब कार्य ( समणाणं ) श्रमणों के लिए ( दूसणं ) दोष ( होइ ) होते हैं।