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रयणसार
७५ सम्यक्त्व-रहित साधु कौन देहादिसु अणुरत्ता, विसयासत्ता कसाय-संजुत्ता। आद-सहावे सुत्ता, ते साहू सम्म-पारचत्ता ।।१०।।
अन्वयार्थ--जो ( देहादिसु अणुरत्ता ) शरीर आदि में अनुरक्त ( विसयासत्ता ) विषयों में आसक्त ( कसाय-संजुत्ता ) कषाय से युक्त ( आद-सहावे सुत्ता ) आत्म-स्वभाव में सोये हुए/प्रमादी हैं ( ते साहू ) वे साधु ( सम्म-परिचत्ता ) सम्यक्त्व से रहित हैं।
अर्थ-जो मुनि संसार शरीर भोगों में अनुरक्त हैं, पंचेन्द्रिय विषयवासना में आसक्त, कषाय की तीव्रता से युक्त तथा आत्म स्वभाव में सुसुप्त हैं वे साधु सम्यक्त्वहीन मिथ्यादृष्टि हैं।
अर्थात् जो साधु अवस्था धारण करके भी स्पर्शन के कोमलकठोर पदार्थों में, रसना इन्द्रिय के खट्ठा-मीठा आदि रसों में, सुगंधदुर्गंध में, अश्लील चित्रों आदि के देखने रूप मनोरंजन में व गीतों के गाने व सुनने में आसक्त हैं, वासना से लिप्त हो शरीर का सुखियापन को नहीं छोड़ते, शरीर का श्रृंगार करते हैं, तथा कषाय की तीव्रता से युक्त हैं, आत्मस्वभाव से अनभिज्ञ हैं, वे साधु सम्यक्त्व से रहित मिथ्यादृष्टि हैं। आचार्य कहते हैं- जो व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व से रहित हैं मात्र बाह्य नग्न भेष को धारण कर मुनि बना है वह दीर्घकाल तक अर्थात् जब तक सिद्धपरमेष्ठी मुक्ति में निवास करते हैं तब तक ( अनन्त काल ) दीर्घ संसार में अनन्त जन्म, मरण से युक्त संसार-सागर में डूबनातैरना करता रहता है।
जैन-धर्म के विराधक आरंभे धण-धण्णे, उवयरणे कंखिया तहासूया । वय-गुणसील-विहीणा, कसाय-कलहप्पिया मुहरा ।।१०१।। संघ-विरोह-कुसीला, सच्छंदा रहिय गुरुकुला मूढा । रायादि सेवया ते, जिण-धम्म-विराहया-साहू ।।१०२।।