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रयणसार
यह राग- आग दहें सदा तातै समामृत सेंइये । चिर भजे विषय कषाय अब तो त्याग निज पद बेइये ||
हे योगी ! राग की आग में जना अब उचित नहीं । समतारूपी अमृत का पान करो। अनादिकाल से विषय कषायों की लपटों में धधकती हुई इस मा को यदि 2 देखते हो, आप की प्राप्ति करना
चाहते हो, तो इस राग का शीघ्र त्याग करो ।
दीर्घ संसारी
दंडत्तय सल्लत्तय, मंडिदमाणो असूयगो साहू | भंडण - जायणसीलो, हिंडइ सो दीहसंसारे ।। ९९ ।।
अन्वयार्थ -- जो ( साहु ) साधु ( दंडत्तय ) तीन दंड- मन, वचन काय को वश में नहीं करता ( सल्लत्तय ) तीन शल्य-माया, मिथ्यानिदान से युक्त ( मंडिदमाणो ) अभिमानी ( असूयगो ) ईर्ष्यालु और ( भंडण - जायणसीलो ) कलह करने वाला, याचना करने वाला है ( सो ) वह ( दीहसंसारे) दीर्घसंसार में (हिंडइ) परिभ्रमण करता है।
अर्थ - जो साधु मन-वचन-काय तीनों दंडों को वश में नहीं करता, माया- मिथ्या निदान शल्यों से युक्त है, अभिमानी है, ईष्यालु है और कलह करने वाला है, याचना करता है वह दीर्घ संसार में परिभ्रमण करता है ।
आचार्य देव साधु को संबोधन देते हुए कहते हैं— हे जीव ! तेरा यह नग्न भेष, पैशुन्य, हास्य, कलह, याचना से युक्त होने से दूषित हो गया हैं। जिस स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से तूने यह पवित्र भेष धारण किया है, उसकी पूर्ति तेरे इस दूषित भेष से नहीं हो सकती। क्योंकि जिस प्रकार थोड़ा सा विष बहुत भारी दुग्ध को दूषित कर देता है उसी प्रकार थोड़ा भी ईर्ष्या, कलह, याचना आदि रूप विभाव परिणाम तेरे लिए दीर्घ संसार में परिभ्रमण का कारण बनेगा।