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रयणसार
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यहाँ जिस प्रकार गुड़ से मिश्रित दूध को पीने पर भी साँप अपना विष नहीं छोड़ते। उसी प्रकार मितजीव जिनधर्म को अच्छी यह सुनकर, दुर्धर काय - क्लेश, घोर तपश्चरण उपवास बेला-तेला आदि करते हुए अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। सत्य तो यह है कि जिसकी दृष्टि मिथ्यात्व से आच्छादित हो मोक्षमार्ग से विपरीत हो रही है ऐसा दुर्बुद्धि मिथ्यादृष्टि जीव रागरूपी पिशाच से गृहीत चित्त हुआ सर्वज्ञ देव के वचनों में श्रद्धा ही नहीं करता । अश्रद्धालु की मुक्ति कैसे हो सकती हैं। कभी नहीं ।
रागी को आत्मा का दर्शन नहीं
रायादि-भल-जुदाणं, णियम्प- रूवं ण दिस्सदे किं । समला - दरिसे रूवं, ण दिस्सए जह तहा णेयं । । ९८ ।।
अन्वयार्थ - ( रायादि - मल- जुदाणं ) राग आदि मल से युक्त जीवों को (णियप्प-रूवं ) अपना आत्म स्वरूप (किं ) कुछ (पि) भी (ण) नहीं ( दिस्सदे) दिखाई देता है ( जह ) जैसे ( समलादरिसे ) मलीन दर्पण ( रूवं ) रूप ( ण दिस्सए) नहीं दिखाई देता ( तहा ) वैसे ही ( णेय ) जानना चाहिये ।
अर्थ – जैसे मल सहित / गंदे / मलीन दर्पण में रूप नहीं दिखाई देता हैं उसी प्रकार राग-द्वेष-क्रोध-मान- माया-लोभ आदि मल से मलीन जीवों को अपना आत्मा स्वरूप नहीं दिखाई देता, ऐसा समझना चाहिये ।
आचार्य कहते हैं— हे योगी ! तेरा नाग्न्य पद वनवास से सहित है परन्तु अन्तरंग का विकार नष्ट हुए बिना मात्र वनवास कुछ कार्यकारी नहीं है। जैसा कि कहा है
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते विमुक्तरागस्य गृहं तपोवनं ॥
रागी मनुष्यों के वन में भी दोष उत्पन्न होते हैं और राग-रहित मनुष्यों के घर में भी पंचेन्द्रियों का निग्रह रूप तपश्चरण होता है । जो मनुष्य निर्दोष मार्ग में प्रवृत्ति करता है उस वीतराग के लिए घर ही तपोवन है ।
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