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श्यणसार अन्वयार्थ—जो ( जोई ) योगी ( अवियप्पो ) विकल्प रहित ( णिबंदो ) निर्द्वन्द्व ( णिम्मोहो) निर्मोह ( णिक्कलंको ) निष्कलंक ( णियदो ) नियत ( णिम्मल ) निर्मल ( सहाव-जुदो ) स्वभाव से युक्त है । सो ) वे ( मुणिराओ ) मुनिराज ( होइ ) होते हैं ।
अर्थ- जो योगी संकल्प-विकल्प रहित हैं, द्वन्द रहित हैं, मोहरहित हैं, कलंक-रहित हैं, नियत/सदैव निर्मल स्वभाव से युक्त हैं वे ही मुनिराज होते हैं।
ऐसे मुनि संयम से सहित हैं, आरंभ-परिग्रह से विरत होते हैं, सुरअसुर से भी वन्दनीय होते हैं । वे ही मुनि परीषहों को सहने में दक्ष, सैकड़ों शक्तियों से सहित हो कर्मों के क्षय और निर्जरा करने में कुशल हैं, वे मुनि वन्दना करने योग्य हैं । इसी को कहते हैं
इह लोग णिरा-वेक्खो, अपडि-बद्धो परम्हि लोयहि । जुत्ताहार विहारो, रहिंद-कसाओ हवे समणो ।। २२६ प्र.सा. ।।
श्रमण/मुनि कषाय रहित होता हुआ, इस लोक में विषयाभिलाषा रहित होता है तथा परलोक में देवादि पर्याय की इच्छा नहीं करता हुआ योग्य आहार विहार में प्रवृत्ति करता है।
मिथ्यात्व सहित मुक्ति का हेतु नहीं तिव्वं काय-किलेसं, कुव्वतो मिच्छ-भाव संजुत्तो। सुव्वण्हुव-देसे सो, णिव्याण- सुहं ण गच्छेइ ।।९७।।
अन्वयार्थ—जो ( तिव्वं काय-किलेसं ) तीव्र काय-क्लेश करता हुआ भी ( मिच्छ-भाव संजुत्तो ) मिथ्यात्व भाव से युक्त है, ( सुचण्हुवदेसे ) सर्वज्ञ के उपदेश में ( सो ) वह ( णिचाण-सुहं ) निर्वाणसुख को ( ण ) नहीं ( गच्छेइ ) पाता है ।
अर्थ- जो योगी या श्रावक तीव्र काय-क्लेश ( विचित्र उपवास आदि बाह्य तप ) करता हुआ भी मिथ्यात्व रूप भाव से सहित है, सर्वज्ञ के उपदेश में वह निर्वाण सुख को नहीं पाता है ।