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रयणसार
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अन्वयार्थ – ( मुणिराओ) मुनिराज ( शिंदा-वंचण दूरो ) परनिन्दा और वंचना से सदा दूर रहते हैं । ( परिसह उवसग्ग- दुक्खसहमाणो ) परीषह, उपसर्ग तथा दुखों को सहन करते हैं। ( सुहझाणज्झयण - रदो) शुभ ध्यान, अध्ययन में रत रहते हैं ( गद-संगो) बाह्य-अन्तः परिग्रह से रहित (होइ ) होते हैं ।
अर्थ – मुनिराज / दिगम्बर साधु सदैव दूसरों की निन्दा से दूर रहते हैं, पर को ठगना रूप वंचना से दूर रहते हैं । बाईस परीषह, चार प्रकार के उपसर्ग तथा शारीरिक, मानसिक-आगन्तुक, परकृत दुःखों को सहन करने में सदा तत्पर रहते हैं । सदा शुभध्यान व अध्ययन / शास्त्राभ्यास में रत रहते हैं और बाह्य १० प्रकार तथा अन्तरंग १४ प्रकार के परिग्रह के त्यागी होते हैं । प्रवचनसार में भी आचार्य देव कहते हैं
सम-सतु-बंधु- वग्गो सम-सुह- दुक्खो पसंस- णिंद समो । सम- लोड-कंचणो पुण जीविद मरणे समो समणी ।। २४१ ।। जो शत्रु व मित्र समुदाय में समान बुद्धि के धारी हैं जो सुख-दुख में समान भाव रखते हैं, जो कंकण और सुवर्ण को समान मानते हैं, जीवन व मरण में समभाव हैं वही श्रमण साधु हैं ।
द्वारा,
मुनिराज अपनी सुदृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा पाँच इन्द्रियों को इस तरह वश में रखते हैं, जिस तरह हाथी अंकुश के द्वारा, घोड़ा चाबुक के गाय व भैंस आदि लाठी के द्वारा वशीभूत किये जाते हैं। वास्तव में इन तपस्वियों की महिमा को मापा नहीं जा सकता है। वे बाहरी अच्छी-बुरी दशा में समताभाव रखते हुए उसे पुण्य पाप का नाटक जानते रहते हैं, इसी कारण वे बाह्य चेष्टाओं से अपने परिणामों को विचलित नहीं होने देते। इन महासाधुओं को मुक्ति द्वीप में जन्मना ही सच्चा जन्म भासता है ।
मुक्ति मार्ग रत योगी होता है
अवियप्पो णिद्दंदो, णिम्मोहो णिक्कलंको णिवदो । णिम्मल सहाव- जुदो, जोई सो होइ मुणिराओ । । ९६ ।।