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रयणसार
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मुनिराज की अनवरत चर्या विकहादि विप्यमुक्को, आहाकम्माइ विरहिओ णाणी । धम्पुसण-कुसलो, अणुपेहा भावणा- जुदो जोई ।। ९४ । । अन्वयार्थ - ( जोई) योगी/मुनिराज ( विकहादि-विप्पमुक्को ) विकथा आदि से पूर्णरूपेण मुक्त होता है ( आहाकम्पाइ ) अध: कर्म आदि से रहित होता है; ( णाणी ) सम्यग्ज्ञानी होता है ( धम्मुद्देसणकुसलो ) धर्मोपदेश देने में कुशल होता हैं; और ( अणुपेहा भावणाजुडो वह अनुक्षा के बिन में नन में अनवरत लगा रहता है।
अर्थ - मुनिराज चार चिकथा आदि से पूर्ण मुक्त होते हैं, अधः कर्म रूप आरंभ पाप से रहित होते हैं, सम्यग्ज्ञानी होते हैं, समीचीनधर्म का उपदेश देने में कुशल होते हैं तथा सतत अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन में लगे रहते हैं ।
जो अधः कर्म युक्त आहार लेते हैं उनका वन में रहना, शून्य स्थान में रहना अथवा वृक्ष के नीचे ध्यान करना क्या करेगा ? उनके सभी योग निरर्थक हैं। उनके कायोत्सर्ग और मौन क्या करेंगे ? क्योंकि मैत्री भाव रहित वह श्रमण मुक्ति का इच्छुक होते हुए भी मुक्त नहीं होगा ? [ मूलाचार गा. ९२५ / ९२६ ]
मोक्षपाहुड में कहा है
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जो देहे णिरवेक्खो हिंदी णिमम्मो णिरारंभो । आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ शिव्त्राणं ॥ १२ ॥
इस
जो शरीर की ममता रहित है राग-द्वेष से शून्य है यह मेरा है, बुद्धि को जिसने त्याग दिया है व जो लौकिक व्यापार से रहित है तथा आत्मा के स्वभाव में रत हैं वही योगी निर्वाण को पाता है।
मुनिराज कैसे होते हैं
जिंदा-वंचण-दूरो, परिसह उवसग्ग- दुक्ख सहमाणो । सुह-झाणज्झयण-रदो, गद- संगो होइ मुणिराओ ।। ९५ । ।