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रमणसार
निश्चयनय और व्यवहारनय के विरोध को मेटने वाली स्याद्वाद से लक्षित जिनवाणी में जो रमते हैं वे स्वयं मोह को वमन कर शीघ्र ही परमज्ञान ज्योतिमय शुद्धात्मा को जो नया नहीं है और न किसी नय के पक्ष से खंडन किया जा सकता है, देखते ही हैं।
श्रुताभ्यास मुनिधर्म व श्रावक धर्म दोनों के लिए उपकारी है । तपश्चरण में समीचीनता लाता है, मन को केन्द्रित करता है । संसार-सुखों से उदासीन बनता है।
मुनिराज तत्त्वचिंतक होते हैं तच्च-वियारण-सीलो, मावल-पहा-राहणा-सहाव-बुदो। अणव-वरयं धम्म-कहा-पसंगओ होइ मुणिराओ ।।१३।।
अन्वयार्थ ( तच्च ) तत्त्व की ( विचारणा-सीलो ) विचारणा स्वभाव वाले ( मोक्खपह) मोक्षपथ की ( आराहणा) आराधना ( सहाव-जुदो ) स्वभाव से युक्त ( अणवरयं ) निरन्तर ( धम्म-कहा ) धर्मकथा के संबंध सहित ( मुणिराओ ) मुनिराज ( होइ ) होते हैं।
अर्थ—जो तत्त्वों के चिन्तन स्वभाव वाले हैं, मोक्षपथ की आराधना स्वभाव से युक्त हैं और निरन्तर धर्म-कथा में दत्तचित हो लगे रहते हैं वे मुनिराज होते हैं।
जो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप व्यवहार सम्यक्त्व के द्वारा उत्पन्न !नश्चय सम्यग्दर्शन में परिणमन करने से दर्शन-मोह को नाश कर चुके हैं, निर्दोष परमात्मा से कहे हुए परमागम के अभ्यास से उपाधि से रहित स्वसंवेदनज्ञान की चतुराई से आगमज्ञान में प्रवीण हैं, व्रत, समिति, गुप्ति आदि बाहरी चारित्र के साधन के वश से अपने शुद्धात्मा में परिणमनरूप वीतराग चारित्र में भले प्रकार उद्यमी हैं तथा मोक्षरूप महापुरुषार्थ को साधने के कारण महात्मा हैं वे ही मुनिराज हैं | वे मुनिराज नित्य दर्शन-ज्ञान-चारित्र व तपाराधना में रत रहते हैं, विकथाओं से रहित धर्मकथा में ही संबंध रखते हैं । वे ही मुनिराज मोक्ष-पथ की आराधना के पथिक हैं।