________________
६८
रयणसार
अन्यदिक् ये ७ गुण प्रगट होते हैं। इसीलिये
स्थिति ६. तपोभावना और ७ गुणों से सम्पन्न वह पाप का कर में प्रकृति को हुए नुण्य-पाप रहित शुद्ध अवस्था की ओर लक्ष्य बनाये रखता है । इसीलिए आचार्य देव बार-बार कहते हैं- "णाणं पयासं" ज्ञान का प्रकाश करो ।
"भेद विज्ञान साबुन भयो, समरस निरमल नीर | धोबी अन्तर आतमा, धोत्रे निज गुण चीर ।। श्रुताभ्यास के बिना सम्यक् तप नहीं सुदणाणबभास जो ण कुणइ सम्मं ण होइ तवयरण | कुव्वंतो मूढमई संसार - सुहाणु - रत्तो सो ।। ९२ ।।
अन्वयार्थ - ( जो ) जो जीव ( सुदणाणब्भास ) श्रुतज्ञान का अभ्यास ( ण ) नहीं ( कुणइ ) करता है उसके ( तवयरण सम्म ) तपश्चरण सम्यक् ( पण होइ ) नहीं होता है ( सो ) वह ( मूढमई ) अज्ञानी ( कुव्वंतो ) [ तपश्चरण] करता हुआ ( संसार- सुहाणु-रत्तो ) संसार सुख में अनुरक्त है ।
अर्थ – जो जीव शास्त्रों का अध्ययन नहीं करता, उसका समीचीन तप नहीं होता । शास्त्राभ्यास के बिना तपश्चरण करना हुआ अज्ञानी संसार के सुखों में ही अनुरक्त है।
शास्त्रज्ञान जितना होगा उतना अधिक स्पष्ट ज्ञान होगा। जितना स्पष्ट ज्ञान होगा उतना ही निर्मल तपश्चरण होगा। जिनवाणी में प्रसिद्ध चारों ही अनुयोगों का कथन हरएक मुमुक्षु को जानना चाहिये। जिनवाणी के पढ़ते रहने से एक मूढ़ व्यक्ति भी ज्ञानी हो जाता हैं। स्वाध्याय के द्वारा आत्मा में ज्ञान प्रकट होता है, कषायभाव घटता हैं, संसार से ममत्व हटता हैं, मोक्ष भाव से प्रेम जगता है। अतः निरन्तर अभ्यास से मिथ्यात्व कर्म व अनंतानुबंधी कषाय का उपशम हो जाता है और सम्यग्दर्शन पैदा हो जाता हैं। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने श्री समयसार कलश में कहा है
उभय-नय- विरोध-ध्वंसिनि स्यात्पदांके जिन वचसि रमन्ते ये स्वयं वांतमोहाः । सपदि समयसारं ते परंज्योति रुच्चै - रनवम- नयपक्षाक्षुण्ण-मीक्षन्त एवं ||
-