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रयणसार
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जो न्यूनता अधिकता हित हैं, याथातथ्य है, विपरीतता से रहित है, संदेह रहित है तथा तर्क या प्रत्यक्ष अनुमान आदि से उल्घंनीय नहीं हैं वह सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव का वचन प्रवचनसार - जिनागम हैं ।
स्वाध्याय ही परम तप हैं- "स्वाध्यायो परमः तपः "
स्वाध्याय ही परम ध्यान है क्योंकि १. ध्यान के समान ही स्वाध्याय में मन-वचन-काय तीनों की एकाग्रता होती है । २. स्वाध्याय करने से अज्ञान का नाश व ज्ञान का प्रकाश होता है । ३. तत्काल ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम बढ़ता है, ४. असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है । ५. हेयोपादेय रूप भेद - विज्ञान की सिद्धि ।
स्वाध्याय तप का फल - १. तत्त्व का अभ्यास २. वैराग्योत्पत्ति ३. धर्मप्रभावना ४. कुवादियों का मान मर्दन ५. स्वाध्याय ६. परम रसायन | सम्यक्ज्ञान ही धर्म्यध्यान
पावारंभ- णिवित्ती पुण्णारंभे पउत्तिकरणं पि ।
णाणं धम्मज्झाणं जिणभणियं सव्वजीवाणं । । ९१ । ।
अन्वयार्थ - ( सव्वजीवाणं ) सब जीवों के लिए ( पावारंभणिवित्ती ) पापारंभ से निवृत्ति और ( पुण्णारंभे ) पुण्य कार्यों में ( पउत्तिकरणं पि) प्रवृत्ति कराने का हेतु भी ( णाणं ) ज्ञान ही है अतः ज्ञान को ही ( धम्मज्झाणं ) धर्म्यध्यान ( जिण भणियं ) जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
अर्थ- जिनेन्द्र देव ने समस्त प्राणियों के लिए ज्ञान को ही धर्म्यध्यान कहा है; क्योंकि हिंसादि पाँच पापरूप आरंभ का त्याग व षट् आवश्यक रूप पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति ज्ञान से ही होती है ।
स्व- पर तत्त्व का ज्ञाता स्वाध्याय करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी हैं। उस ज्ञान के फल से ज्ञानी के- १. सकल पदार्थ का बोध २. हित-अहित का बोध ३. भाव संवर ४. नवीन नवीन संवेग ५. मोक्षमार्ग में