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रयणसार
जितना कि भिक्षुक को धनवान के समक्ष बनना पड़ता; फिर भी तुम ज्ञानाभ्यास करो । मनुष्यों में अधम वे लोग हैं, जो ज्ञानाभ्यास से/विद्या सीखने से विमुख होते हैं । मानव जाति की दो आँखें है एक अंक और एक अक्षर |
स्रोत को जितना खोदा जायेगा, उतना ही अधिक पानी निकलेगा। ठीक उसी प्रकार जितना अधिक ज्ञानाभ्यास किया जायेगा, स्व-पर का भेदज्ञान होगा। भेदविज्ञान की सिद्धि होने पर ध्यान में एकाग्रता होगी। ध्यान की निश्चलता में कर्मों का क्षय होते ही मुक्ति की प्राप्ति होगी।
अध्ययन ही ध्यान है। अज्झयण-मेव झाणं, पंचेंदिय-णिग्गहं कसायं पि । तत्तो पंचम-याले पवयण-सारम्भास-मेव कुज्जाह ।।९।।
अन्वयार्थ ( अज्झयण-मेव झाणं ) अध्ययन ही ध्यान है ( पंचेंदिय-णिग्गहं ) पंचेन्द्रियों का निग्रह ( कसायं पि ) कषाय निग्रह। शमन भी होता है ( तत्तो ) इसलिये ( पंचम-याले ) वर्तमान पंचम काल में ( पवयण-सारब्भास-मेव ) प्रवचन-सार जिनागम का अभ्यास ( कुज्जाह ) करना चाहिये।
अर्थ अध्ययन ही ध्यान है। पंचेन्द्रियों का निग्रह व कषायों का भी निग्रह/शमन अध्ययन से होता है । इसलिये पंचमकाल/वर्तमान पंचमकाल में जिनेन्द्र भगवान के श्रेष्ठ वचनों का अभ्यास करना चाहिये ।
जैसे धागे सहित सुई प्रमाद दोष से भी खोती नहीं है, ऐसे ही सूत्राध्ययन प्रवचनसार जिनागम के अभ्यास से सहित पुरुष प्रमाद दोष से भी नष्ट नहीं होता । प्रवचनसार-जिनागम का अर्थ क्या है ? ।
आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी प्रवचनसार जिनागम का भाव लिखते हुए कहते हैं- "प्रकृष्ट वचनं = प्रवचन हैं उसका सार प्रवचनसार जिनागम जिनवाणी है । वो प्रवचनसार कैसा है
अन्यून-मनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । नि:संदेहं वेद सदाहु-स्तज्ज्ञान-मागमिनः ।।