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रयणसार
जाता हैं, परिग्रह संचय करता है, परिग्रह को इकट्ठा करने में अपने को बड़ा समझता है वह लोभी, अज्ञानी साधु अनेक प्रकार के काय-क्लेश करता हुआ आर्तध्यान में मरता है, संसार से तिर नहीं पाता । आचार्य देव कहते हैं- हे साधो ! शरीर बाह्य कारण की अपेक्षा सभी जीव नग्न हैं, नारकी और तिर्यंच तो समुदाय रूप से नग्न हैं परन्तु भावों में अशुद्धता है । भावों की विशुद्धि के बिना मात्र नग्नता कार्यकारी नहीं है । जिस प्रकार इक्षु का 'फूल', फल रहित और निर्गन्ध होने से निर्गुण होता है उसी प्रकार जो मुनि परिग्रह से घिरा है वह मूर्ख है, लोभी है मोक्षरूपी फल से रहित है, निर्गुण ज्ञान हीन होता है अर्थात् वह नग्नवेषी नट ( बहुरूपिया ) श्रमण है [ अ.पा. ४०१, पृ० १. आ. कु.]
ज्ञानाभ्यास कर्मक्षय का हेतु णाणभास विहीणो स-पर तच्चं ण जाणदे किं पि । झाणं तस्सण होइ हु, ताव ण कम्मं खवेइ ण हु मोखं ।।८९।।
अन्वयार्थ ( णाणब्भास विहीणो ) ज्ञानाभ्यास से रहित जीव ( स-पर तच्चं ) स्व-पर तत्त्व को ( किं पि ) कुछ भी ( ण) नहीं ( जाणदे ) जानता ( तस्स ) उसके ( हु ) निश्चय से ( झाणं ) ध्यान ( ण होइ ) नहीं होता ( ताव ) तब तक ( कम्म ) कर्मों का ( ण खवेइ ) क्षय नहीं करता ( ण हु मोक्खं ) न ही मोक्ष होता है। ___अर्थ-ज्ञानाभ्यास से विहीन जीव स्व-पर तत्त्व को कुछ भी नहीं जानता उसके निश्चय से ध्यान नहीं होता, तब तक कर्मों का क्षय नहीं करता, न ही मोक्ष होता है 1 अर्थात् ज्ञानाभ्यास के बिना स्व-पर की पहचान नहीं । स्त्र-पर की पहचान बिना ध्यान नहीं । ध्यान के बिना कर्मों का क्षय नहीं और कर्मक्षय के बिना मुक्ति नहीं। नीतिकार कहते हैं
"नास्ति काम समो व्याधि, नास्ति मोह समो रिपः ।
नास्ति क्रोध समो वह्नि नास्ति ज्ञान समं सुखम् || ज्ञान के समान अन्य कोई सुख नहीं है अत: हे भव्यात्माओं ! यदि तुम्हें गुरु या शिक्षक के सामने उतना ही अपमानित और नीचा बनना पड़े,