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रयणसार
कारण नहीं है अतः संशय-विपर्यय-अनस्यानमाय रहित ममीनीन ज्ञान के द्वारा आत्मतत्त्व को पहिचानो।
जो निम्रन्थ साधु भी हो गया, बाह्य परिग्रह को भी छोड़ चुका है; किन्तु जिसने मिथ्यात्व को नहीं छोड़ा है उसके कायोत्सर्ग, मौंन व बहुत प्रकार के तप भी शोभा को प्राप्त नहीं होते । अज्ञानी तप आदि करके भी कषाय व संक्लेश परिणामों से परिणत हुआ नवीन कर्मों का बंध करता है
और ज्ञानी राग-द्वेष और कषाय रूप कर्मों का उदय होने पर भी उन रूप परिणमन न कर रत्नत्रय की सिद्धि करता है, शोभा को प्राप्त करता है अत: कहा है
कोटि जनम तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरै जे । ज्ञानी के छिनमाँहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरै ते ।।४।।
साधु के पास परिग्रह दुख का कारण मक्खी सिलिम्मि पडिओ, मुवइ जहा तह परिग्गहे पडिउ । लोही मूढो खवणो, काय-किलेसेसु अण्णाणी ।।८८।।
अन्वयार्थ---( जहा ) जैसे ( मक्खी ) मक्खी ( सिलिम्मी ) श्लेष्मा में ( पडिओ ) गिरि हुई ( मुबइ ) मर जाती है ( तह ) वैसे ही ( परिग्गहे पडिउ ) परिग्रह में पड़ा हुआ ( लोही ) लोभी ( मूढो ) मूर्ख ( अण्णाणी ) अज्ञानी ( खवणो ) साधु ( काय-किलेसेसु ) कायक्लेश में मरता है। __ अर्थ जैसे मक्खी श्लेष्मा/कफ में गिरि हुई मृत्यु को प्राप्त होती है वैसे ही परिग्रहरूपी श्लेष्मा मे पड़ा हुआ लोभी, मूर्ख, अज्ञानी साधु मात्र काय-क्लेश मे मरता है।
मक्खी नासिका मल/श्लेष्मा में लोभवश गिरती है वहां से निकलने के लिए फड़फड़ाती है पंखों को फैला कर निकलने का प्रयत्न करती है बार-बार पुरुषार्थ करने पर भी आतध्यान से वहीं मरकर प्राणों की आहुति दे देती है । इसी प्रकार जो साधु भेष धारण कर परिग्रहरूपी श्लेष्मा में गिर