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रयणसार की उपलब्धि नहीं तथा सम्यग्चारित्र के बिना निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती। पूज्यपाद स्वामी आत्मतत्त्व की प्राप्ति का उपाय बताते हुए लिखते हैं
यन्मया दृश्यले रूपं तत्र जानाति सर्वथा ।
जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ।।१८।। स.श. हे आपन । विचार करो कि -"जो जानने वाला चैतन्य द्रव्य है वह तो मुझे दिखाई नहीं देता और जो इन्द्रियों के द्वारा रूपी जड़ पदार्थ दिखाई दे रहे हैं वे सब चेतना रहित हैं, वे कुछ भी नहीं जानते, अब मैं किसके बात करूं, किसी से भी वार्तालाप करना बनता नहीं । अतः मुझे अब चुपचाप [मौनयुक्त हो ] हो आत्मतत्त्व की प्राप्ति का उपाय करना ही सार्थक है।
ज्ञानविहीन तप की शोभा नहीं साल-विहीणो-राओ, दाण-दया-धम्म-रहिय गिह सोहा । णाण-विहीण तवो वि य, जीव देह विणा सोहाण ।1८७।।
अन्वयार्थ ( साल-विहीणो राओ) दुर्ग के बिना राजा की ( दाण-दया- धम्म-रहिय ) दान, दया, धर्म से विहीन ( गिह सोहा ) गृहस्थ की शोभा ( य ) और ( जीव विणा ) जीव के बिना ( देह सोहा ) शरीर की शोभा (ण) नहीं है वैसे ही ( णाण विहीण) ज्ञानविहीन ( तवो वि ) तप की भी शोभा नहीं है । ___ अर्थ-जैसे दुर्ग/किला के बिना राजा की, दान-दया-धर्म रहित गृहस्थ को कोई शोभा नहीं, जीव के बिना शरीर की कोई शोभा नहीं है वैसे ही ज्ञानरहित तप की भी कोई शोभा नहीं होती।
"ज्ञान समान न आन, जगत में सुख को कारण । इह परमामृत जन्म-जरा-मृत्यु रोग निवारणा ।। ताते जिनवर तत्त्व कथित अभ्यास करीजे ।
संशय विभ्रम मोह त्याग आपो लख लीजे ।। आचार्य देव कहते हैं—संसार में ज्ञान के समान अन्य कोई सुख का