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रयणसार
परमानन्दी शुद्धस्वरूपी अविनाशी में आत्मा हूँ |
सहजानंदी शुद्धस्वरूपी अविनाशी मैं आत्मा हूँ ।। मेरा आत्मा एक है, निश्चय से शुद्ध हैं, दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप है सदा अवरूपी है, परमाणु-मात्र भी कोई पदार्थ मेरा नहीं । एकमात्र मेरा आत्म द्रव्य ही मेरा स्वतत्त्व है । उसी को जानता हूँ, देखता हूँ बस यही भावना करो। दुखों के नाश का एकमात्र वही उपाय है ।
__ सम्यक्त्व से निर्वाण-प्राप्ति णिय-तच्चुव-लद्धि विणा, सम्म-तुव-लद्धि णस्थि णियमेण । सम्मत्तुव-लद्धि विणणा, णियाणं पास्थि णियमेण ।।८६।।
अन्वयार्थ (णिय-तच्चुव-लद्धि विणा ) निज आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के बिना ( णियमेण ) नियम से ( सम्म-तुव-लद्धि ) सम्यक्त्व की प्राप्ति ( गत्थि ) नहीं होती ( सम्मत्तुव-लद्धि विणा ) सम्यक्त्व की प्राप्ति के बिना ( णियमेण ) नियम से ( णिव्वाणं) निर्वाण ( पत्थि ) नहीं है।
अर्थ—निज आत्मस्वरूप की प्राप्ति के बिना नियम से सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती । सम्यक्त्व की उपलब्धि के बिना नियम से निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती।
हे भव्यात्माओं ! इस जड़ शरीर में आत्मबुद्धि का होना आत्मस्वरूप की प्राप्ति का बाधक है। अत: शरीर में आत्मत्व को मिथ्या कल्पना को छोड़कर बाह्य विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकते हुए अन्तरंग आत्मा में प्रवेश करो । आत्मस्वरूप की प्राप्ति करो।
स्त्री-पुत्र-धन-धान्यादिक विषय बाह्य वचन व्यापार को और मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, शिष्य हूँ गुरु हूँ आदि अन्तरंग जल्प को भी हटाकर, चित्त की एकाग्रता कर आत्मस्वरूप की प्राप्ति करो। क्योंकि आत्मस्वरूप की प्राप्ति के बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं और और सम्यक्त्व के बिना सम्याचारित्र