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रयणसार
अर्थात् मात्र वस्त्रादि बाह्य पदार्थों के त्याग से श्रमणपना नहीं होता उसके साथ भावशुद्धि भी आवश्यक है; तभी कर्मों के क्षय में बाह्य लिंग का महत्त्वकारी योगदान सिद्ध होगा। अन्यथा सब व्यर्थ ही हैं, एकमात्र आडंबर ।
आत्मा की भावना बिना दुख ही है जाव ण जाणइ अप्पा, अप्याणं दुक्ख-मप्पणो ताव । तेण अणंत-सुहाणं, अपाणं भाषा जोई ।।५।।
अन्वयार्थ—( जाव ) जब तक ( अप्पा ) आत्मा ( अप्पाणं) आत्मा को ( ण ) नहीं ( जाणइ ) जानता ( ताव ) तब तक ( अप्पणो ) आत्मा को ( दुक्खं ) दुःख है ( तेण ) इसलिये ( जोई) योगी ( अणंत-सुहाणं ) अनंत-सुख स्वभावी ( अप्पाणं ) आत्मा की ( भावए ) भावना करे ।
अर्थ—जब तक आत्मा आत्मा को नहीं जानता तब तक आत्मा को दुःख है, इसलिये योगी अनंत सुख स्वभावी आत्मा की भावना करें । ___आचार्य देव कहते हैं, हे सबोध से पराङ्मुख मूढ़ मानव ! अपने शरीर स्थित ईश्वर रूप निजात्मा का स्मरण करो । यदि ऐसा न करोगे तो संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा । फिर मृखों के मूर्ख शिरोमणि कहलाओगे तथा दुखों को प्राप्त होओगे। अत:
अयि कथमपि मृत्वा, तत्त्व कौतूहली सन् । अनुभव भव मूर्तेः, तत्त्व पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् ।। पृथगथ विलन्त विलसन्त स्वं समालोक्य येन ।
त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ।। हे योगी ! तुम किसी प्रकार मरकर भी कष्टो को भी प्राप्त कर आत्मतत्त्व के जिज्ञासु होओ । शरीरादि मूर्तदव्य का एक मुहूर्त के लिए पड़ौसी बनकर आत्मा की भावना करो। आत्मानुभव करो । दुख का कारण शरीरादि परद्रव्य के प्रति मोह का त्याग कर, परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा के स्वरूप की बार-बार भावना करो | मैं कौन हूँ? इसी का ज्ञान करो