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रयणसार कर्मों का क्षय करने में सक्षम नहीं हो सकता । वह तो "यतो भ्रष्टा ततो 'भ्रष्टा'' यहाँ का रहा न वहाँ का । वह न गृहस्थ रहा न त्यागी तो फिर कर्मक्षय कैसे कर सकेगा? कभी भी नहीं ।
___ आत्मज्ञान बिना बाह्य लिंग क्या कर सकता है अप्पाणं पिण पॅच्छइ, ण मुणइ ण वि सद्दहइ ण भावेइ । बहु-दुक्ख-भार-मूलं लिंगं घेत्तूण किं करेइ ।। ८४।। ___अन्वयार्थ--जो साधु ( अप्पाणं ) आत्मा को ( पि ण पेंच्छइ ) नहीं देखता है ! - मुगाई , : उमक मान करता है ( ण वि सद्दहइ ) न ही आत्मा की श्रद्धा करता है (ण ) न ही आत्मा की भावना ही करता है वह ( बहु-दुक्ख-भार-मूलं ) अत्यन्त/बहुल दुख के भार के कारण ( लिंगं घेत्तूंण ) बाह्य भेष मात्र धारण करके ( किं करेइ ) क्या करता है ?
अर्थ—जो बाह्य लिंग/मुनिभेष धारण करके भी आत्मा को नहीं देखता, आत्मा का मनन नहीं करता, आत्मा का श्रद्धान नहीं करता और आत्मा की भावना भी नहीं करता है वह अत्यंत दुख का मूल कारण ऐसे बाह्य भेष को धारण करके भी क्या करता है ?
यहाँ आचार्य देव का तात्पर्य है कि निजात्मा का ज्ञान श्रद्धा-भावना-मनन नहीं है तो लिंग धारण करके भी अनन्त संसार में परिश्रमण ही करना होगा
णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसार सायरे भमई।
णगो ण लहइ बोर्हि जिणभावणज्जिओ सुइर १६८॥ जिनभावना अर्थात् सम्यक्त्व परिणाम, निजात्म तत्त्व की श्रद्धा, रुचि प्रतीति । उससे रहित नग्न पुरुष नरक, तिर्यंच, कुमनुष्य और कुदेवों में छेदन, भेदन, सूलारोहण, आदि तथा शारीरिक, मानसिक व आगन्तुक अनेक दुःखों को प्राप्त करता हैं । निजात्म भावना से रहित नग्न मनुष्य संसार-सागर में परिभ्रमण करता है तथा उसी में मजन-उन्मज्जन करता है तथा चिरकाल तक रत्नत्रय को प्राप्त नहीं होता है।