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रयणसार नहीं है, उनसे होने वाले पाप की चिन्ता नहीं है, अहिंसावत की रक्षार्थ मुनिलिंग धारण करते समय ईर्या-समिति से चलने का नियम लेकर कूदते हुए, दौड़ते हुए, पृथ्वी को खोदते हुए चलते हैं, असत्य भाषण करते है, दूसरों के उपकरण आदि की चोरी करते है, अब्रह्म से युक्त हैं, परिग्रह का संचय करते रहते है, किसी के बंधन में फँसकर धान आदि कूटते है, पृथ्वी खोदते हैं, वे मुनि सम्यक्त्व-रहित हैं । वस्तुत: वे मुनि ही नहीं हैं। और भी.....
प्रवचनसार ग्रंथ मे आचार्य देव लिखते हैं-यदि स्वयं आत्मा की भावना करने वाला होने पर भी यदि साधु अनर्गल व स्वेच्छाचारी लौकिक जनो की संगति करता है, उनकी संगति का त्याग नहीं करता है तो अति परिचय होने से अग्नि की संगति से जल उष्णपने को प्राप्त हो जाता है ऐसे वह साधु विकारी हो जाता है । सम्यक्त्व व संयम से च्युत हो जाता है । अत: मुनियों के लिए लौकिक संग सर्वथा निषेध्य है।
परनिन्दक-आत्मप्रशंसक मोक्षमार्गी नहीं ण सहति इयरदप्पं, थुवंति अप्पाण-मप-माहप्पं । जिव्ह-णिमित्तं कुर्णति, कज्जं ते साहु सम्म-उम्मुक्का ।।१०५।। ___अन्वयार्थ—जो ( साहु ) साधु ( इयरदप्पं ) दूसरों के बड़प्पन को ( ण सहंति ) नहीं सहते हैं ( अप्पाणं) अपनी और ( अप्पमाहप्पं ) अपने माहात्म्य की ( थुवंति ) प्रशंसा करते हैं । ( जिव्ह णिमित्तं ) जिव्हा इन्द्रिय के निमित्त ( कज्ज ) कार्य ( कुणंति ) करते हैं ( ते ) वे ( साहु ) साधु ( सम्म-उम्मुक्का ) सम्यक्त्व से विहीन। रहित जानो।
अर्थ-जो साधु दूसरों की महानता/ बड़प्पन/गुणों को सहन नहीं करते हैं और अपनी तथा अपने माहात्म्य को ही प्रशंसा सदा करते हैं । जिव्हा के वश हो, उसी के लिए कार्य करते हैं वे साधु सम्यक्त्व से रहित होते हैं । उमास्वामी आचार्य तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में लिखते हैं