________________
रयणसार
५७ गुरुओं के उपकार को भूलकर, उनकी भक्ति से विहीन शिष्य के समस्त गुणों पर पानी फिर जाता है । कृतघ्नता से दूषित उसके गुरु-भक्ति रूपी जड़ के बिना विद्या आदि समस्त गुण बिजली के समान क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं।
हेय-उपादेय? हीणा-दाण' -वियार-विहीणादो बाहि-रक्ख सोक्खं हि । किं तजियं किं भजियं, किं मोक्खं ण दिट्ठ जिणुद्दिटुं ।।८१।। ___अन्वयार्थ-( जिणुद्दिव ) जिनेन्द्र देव ने कहा [ यह जीव ] ( हीणा-दाण-वियार-विहीणादो ) निन्द्य और ग्राह्य के विचार से विहीन होने से ( हि ) निश्चय से ( बहि-रक्ख सौक्ख ) बाह्य इन्द्रिय सुख को ही सुख मानता है ( किं तजियं ) त्यागने योग्य क्या है ? (किं भजियं ) उपादेय क्या है ? ( किं मोक्खं ) मोक्ष क्या है उसे ( ण दिटुं ) नहीं देखता/जानता। ___अर्थ यहाँ जिनेन्द्रदेव कहते हैं कि अनादिकालीन मोह बुद्धि के संस्कार से गाढ़ अज्ञानांधकार में फँसा हेयोपादेय बुद्धि/विवेक से रहित जीव-निन्द्य क्या है ? ग्राह्य/ग्रहण के योग्य क्या है ? नहीं जानता हुआ, विचारों से विहीन होने से बाह्य इन्द्रिय सुखों को ही सच्चा सुख मानता है। छोड़ने योग्य क्या है ? उपादेय क्या है ? मोक्ष क्या है ? उसे वह जानता भी नहीं और देखता भी नहीं । क्षत्रचूड़ामणि ग्रंथ में आचार्य देव लिखते हैं
हेयापादेय विज्ञानं नो चेद् व्यर्थः श्रमः श्रुतौ।
किं ब्रीहि खण्डनायासै-स्तण्डला-मसम्भवे ।।४४।। क्ष.चू० यदि हेय-उपादेय/कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक नहीं तो शास्त्र में परिश्रम करना व्यर्थ है; क्योंकि चावलों के असंभव होने पर धान्य के कूटने के परिश्रमों से क्या लाभ हो सकता है ? १- [ हाणा दाण भी पाठ है ] प्र. ब.