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'रयणसार
पं० आशाधरजी लिखते हैं- कल्याण के इच्छुक शिष्यों को प्रतिदिन हमेशा ही गुरुओं की उपासना, सेवा - भक्ति करनी चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार गरुड़ पक्षी जिसके पास हैं उसके पास सर्प नहीं आते। उसे विषधर सर्प भी नहीं काट पाते, उसी प्रकार गुरुभक्तिरूपी गरुड़ ( गारुड़ मार्ग ) जिसके हृदय में हैं उनको धर्मानुष्ठान में आने वाले विघ्नरूपी सर्प काट नहीं सकते । इसके विपरीत जो गुरु के साथ ऊपरी विनय भक्ति दिखाते हैं उनके समस्त अनुष्ठान नाश को ही प्राप्त होत है।
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कारण बिना कार्य नहीं
सम्माण विणा रुइ भत्ति विणा दाणं दया विणा धम्मो । गुरु भत्ति विणा तव गुण चारितं णिप्फलं जाण ॥ १८० ॥
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अन्वयार्थ --- ( सम्माण ) सम्मान / आदर / सत्कार भाव के ( विणा ) बिना (रुइ ) रुचि / प्रेम ( भत्ति - विणा दाणं ) भक्ति के बिना दान (दया विणा धम्मो ) दया के बिना धर्म तथा ( गुरु भत्ति विणा ) गुरु भक्ति के बिना ( तव गुण चारितं ) तप-गुण-चारित्र को ( णिप्फलं (जाण) निष्फल जानो ।
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अर्थ- हे भव्यात्माओं ! जिस प्रकार आदर भाव के बिना प्रेम, भक्ति के बिना दिया गया दान और दया के बिना धर्म निष्फल हैं / निस्सार हैं, उसी प्रकार गुरु भक्ति के बिना तप- गुण और चारित्र को भी निस्सार जानो ।
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गुरु की भक्ति में शिष्य का मन नहीं है तो समझना चाहिये कि शिष्य के मन में गुरु भक्ति के अलावा ख्याति-पूजा लौकिक सुखों को प्राप्त करने की तृष्णा बनी हुई है। शिष्यत्व का सबसे बड़ा गुण है- "निःस्वार्थ" । जो शिष्य गुरु के उपकारों को भूल गया, उनकी सेवा भक्ति से दूर हो गया, समझ लो पृथ्वी पर उससे बड़ा कृतघ्नी और कोई नहीं । वादीभसिंह आचार्य लिखते हैं-
गुरु द्रुहां गुणः को वा कृतघ्नानां न नश्यति ।
विद्यापि विद्युदाभा स्याद मूलस्य कुतो स्थितिः ॥
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