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अर्थ- जो कोई शिष्य समस्त परिग्रहों से रहित हैं, सभी प्रकार के जप व दुर्धर तप व्रतादि भी करता है; किन्तु यदि वह गुरु भक्ति से विहीन है, के नहीं है, के वचनों में श्रद्धा रहित हैं, गुरु आज्ञा अनुकूल गुरु तो उसका समस्त त्याग, व्रत, तप, अनुष्ठान आदि ऊसर भूमि में बोय गये उत्तम बीज के समान जानना चाहिये । अर्थात् जैसे ऊसर भूमि में बोया उत्तम बीज फलदायी नहीं / व्यर्थ होता वैसे ही गुरु- भक्ति से रहित शिष्य का त्याग-जप-तप- व्रत आदि सब व्यर्थ ही जानना चाहिये ।
रयणसार
हे भव्यात्माओ ! "गुरु भक्ति सति मुक्त्यै" गुरु भक्ति मुक्तिदायिनी कल्पलता है। गुरु की प्राप्ति ही कठिन हैं-
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । शीश दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ||
गुरु भक्ति में समर्पण की भावना सन्निहित हो तभी शिष्य अमरफल को प्राप्त कर सकता है। जो जीवन में योग्य शिष्य नहीं बन पाया वह कभी योग्य गुरु भी नहीं पायेगा । अतः योग्य शिष्य बनकर शिष्य को गुरु भक्ति में जीवन समर्पित कर देना ही सत्यता है ।
गुरु- भक्ति रहित शिष्य का व्रतादि निष्कल है
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रज्जं पहाण होणं, पदिहीणं देस- गाम रट्ठ बलं । गुरुभत्ति हीण सिस्सा णुट्ठाणं णस्सदे सव्वं । । ७९ ।।
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अन्वयार्थ ----( पहाण हीणं ) प्रधान / राजा से हीन ( रज्जं ) राज्य ( पदिहीणं ) स्वामी से विहीन देश - ग्राम - राष्ट्र - सैन्यबल और ( गुरुभक्ति हीण ) गुरु भक्ति से विहीन (सिस्सा ) शिष्य के ( सव्वं ) सभी ( अणुट्ठाणं) अनुष्ठान ( णस्सदे) नाश को प्राप्त हो जाते हैं।
अर्थ - जिस प्रकार राजा से विहीन राज्य और स्वामी के बिना देशराष्ट्र ग्राम सैन्यबल आदि सारी विभूतियाँ निरूपयोगी / व्यर्थ हैं, नाश को प्राप्त होने वाले हैं उसी प्रकार गुरु-भक्ति से विहीन शिष्य के समस्त अनुष्ठान नष्ट हुए जानो 1