________________
रयपासार
बाह्यतप माहात्म्य काय-किलेसुववास दुद्धर-तव-यरण-कारणं जाण । तं णिय-सुद्धप्प-रुई, परिपुषणं चेदि कम्म-णिम्मूलं ।।८२।। ____ अन्वयार्थ-( काय-किलेसुववास ) कायक्लेश व उपवास ( दुद्धर-तव-यरण-कारणं ) कठोर तपश्चरण के कारण ( जाण ) जानो (तं ) वे ही काय-क्लेश व उपवास ( णिय-सुद्धप्प-रुई ) अपने शुद्ध आत्मा की रुचि होने पर ( परिपुण्णं ) समस्त ( कम्म-णिम्मूलं) कमों के क्षय के कारण होते हैं ( चेदि ) ऐसा जानो। ___अर्थ काय-कलेश और उपवास कठोर तपश्चरण के कारण होते हैं ऐसा जानो और अपने शुद्ध आत्म-तत्व की रुचि होने पर वे कायक्लेशउपवासादि समस्त कर्मों के क्षय के कारण होते हैं।
द्रव्यदृष्टि से निज शुद्धात्मा ही एकमात्र उपादेय है । जब तक अपने शुद्ध आत्मा की ओर रुचि नहीं है, शुद्ध आत्मा की प्रतीति नहीं है, शुद्ध आत्मा की ओर लक्ष्य नहीं है तब तक काय-क्लेश, उपवास आदि बाह्य तप कर्मों का निर्मूल क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं।
किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्त उववासो।
अज्झयण मौण पहुदि समदा रहियस्स साहुस्स ।। आत्मा का स्वभाव समता रस से पूर्ण है । उस अपने आत्म स्वभाव की रुचि/प्रतीति के बिना वन में निवास, विचित्र-विचित्र प्रकार का कायक्लेश, उपवास, अध्ययन, मौन की साधना आदि क्या कर सकता है, कुछ नहीं । अर्थात् जो जीव आत्म स्वभाव से विपरीत है, मात्र बाह्य कर्म उसका क्या कर देगा? नाना प्रकार का उपवास आदि उसके कर्मों का क्षय कभी भी नहीं कर पायेगा । पूज्यपाद स्वामी भी इसी बात को कहते हुए लिखते हैं—जो जीव आत्मा अनात्मा के स्वरूप को देह से भिन्न आत्मा की अखंडता को नहीं जानता है वह घोर तप को करता हुआ भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।