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रयणसार
का त्याग कर प्राण इन्द्रिय, टी.वी., सिनेमा, अश्लील चित्रों को देखने का त्याग कर चक्षु इन्द्रिय और अश्लील गीतों को सुनने का त्याग कर कर्णेन्द्रिय को वश करना चाहिये क्योंकि
अलि-पतंग- मृग-मीन-गज, याके एक ही आँच 1
तुलसी बाकी का मति-जाके पीछे पाँच ।। फिर नाना प्रकार के आसन आदि लगाने का अभ्यास कर शरीर को, ध्यान को साधना या मनोगुप्ति से मन को, भाषा समिति या मौन की साधना से वचन को, प्रयोजन के बिना यत्र-तत्र भ्रमण प्रमादचर्या, अनर्थदंड का त्यागरूप अनर्थदंड व्रत को धारण कर हाथ-पाँव को वश करने के बाद सिर मुंडाना चाहिये । पूर्व में वश करने योग्य को वश न कर जो एक मात्र सिर को मुंडाता है वह मोक्ष-मार्ग को नहीं प्राप्त हो सकता । फिर वहीं होगा
मुंड मुडाये तीन गुण, सिर की मिट गई खाज ।
खाने को लड्डू मिलें लोग कहे महाराज । लोक में और भी कहा है
मुँड-मुंडाय रखाय जटा सिर, राख रमाय बने ब्रह्मचारी । धर्म-अधर्म को घुट पिये, ममता-मद-मोह-माया न बिसारी । बैठ रहे पट दे मठ भीतर, साधके मौन लगायके तारी। ऐसे भये तो कहा तुलसी, जिन आसन मार के आश न मारी।
भक्ति बिना सब शून्य पदिभत्ति-विहीण सदी, भिच्चो जिण-समय-भत्ति-हीण जण्णो | गुरु-भक्ति-हीण सिस्सो, दुग्गदि-मग्गाणु-लग्गओ णियदं ।।७।।
अन्वयार्थ (पदिभत्ति-विहीण ) स्वामी भक्ति से रहित ( सदी ) सती और ( भिच्चो ) भृत्य/नौकर ( जिण-समय-भत्ति हीण ) जिनेन्द्र देव-जिनागम/शास्त्र की भक्ति से रहित ( जपणो ) जैन; ( गुरु-भक्तिहीण सिस्सो) गुरु भक्ति से रहित शिष्य ये ( णियदं) नियम से ( दुग्गदि ) दुर्गति के ( मग्गाणु-लग्गओ ) मार्ग में संलग्न हैं। १- जडणो [ ब. प्रति ] पाट भी है।