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पणा
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को जड़ जो अमीनरूपी तीन-तीन सर्प इसते रहते हैं। उसके विष को सम्यग्दर्शन- ज्ञान और वैराग्य की औषधि और मंत्र से लीला मात्र में दूर किया जा सकता है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि की पर- पदार्थों में आसक्ति समाप्त हो जाती हैं सम्यग्ज्ञानी को " पर पदार्थ, पर भासता हैं", "स्त्र पदार्थ, स्त्र" अतः भेद-विज्ञान होते ही पर द्रव्य में ममत्व छूट जाता है। वैरागी / चारित्रवान की आवश्यकता भी घट जाती हैं। अनासक्ति, भेदविज्ञान और अनावश्यकता तीन औषधियाँ सम्यग्दृष्टि ज्ञानी वैरागी के पास रहती हैं तथा रत्नत्रय का मंत्र । बस ! अब तो बड़े-बड़े लोभरूपी सर्प व विषधर इनके सामने भी आ नहीं पाते।
मुनि दीक्षा के पूर्व १० का मुंडन आवश्यक पुष्वं जो पंचिंदिय, तणु-मण- वचि- हत्थ - पाय मुंडाओ । पच्छा सिर मुंडाओ, सिव- गइ पहणायगो होइ । १७६ ।।
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अन्वयार्थ - ( जो ) जो मनुष्य (पुव्वं ) पहले ( पंचिंदिय ) पाँचों इन्द्रियों (तष्णु-मण- वचि - हत्थ - पाय ) शरीर-मन-वचन- हाथ और पाँव को ( मुंडाओ) मूँडता है / वश में करता है (पच्छा ) पश्चात् ( सिर मुंडाओ ) सिर मुँडाता है [ केशों का लुंचन करता है ] - वह (सिव- गइ ) मोक्ष गति / मोक्षमार्ग का ( पहणायगो ) प्रधान / नेता (होइ ) होता है।
अर्थ - जो मनुष्य प्रथम स्पर्शन- रसना- प्राण-चक्षु कर्ण इन्द्रियों को वश करता है, शरीर को, मन, वचन, हाथ, पाँव को वश करता है, इसके बाद केशलोंच करता है वही मुक्तिमार्ग का प्रधान नेता होता है। अर्थात् मुनि दीक्षा के पूर्व ५ इन्द्रिय मन वचन + शरीर हाथ पाँव = १० का मुंडन आवश्यक है।
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"चित्र जैनेश्वरी दीक्षा स्वैराचार विरोधिनी" मानव को मुक्ति-मार्ग का नेता बनने या मुक्ति पथ पर चलने के लिए सर्वप्रथम अखंड ब्रह्मचर्य या स्वदार संतोषव्रत को धारण कर स्पर्शन इन्द्रिय, अभक्ष्य पदार्थों के सेवन का त्याग कर रसना इन्द्रिय, इत्र-सेंट आदि सुगंधित वस्तुओं के उपभोग