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रयणसार
___ चार व्यक्ति किसी कार्य के लिए गाँव के बाहर नदी पार कर गंतव्य की ओर जा रहे थे। चारों व्यक्ति रात्रि में नौका में बैठ गये । रात्रि का समय था, नाविक थक चुका था। वह नाव को खुंटा से खोलना भूल गया । रातभर दोनों हाथो से नात्र खेता रहा । प्रात: सूर्योदय की शुभ बेला में सोचता है- अब तो किनारा मिलने ही वाला है; पर नजर उठाकर एक दृष्टि दौड़ाई तो पाया नाव जहाँ की तहाँ है । क्योंकि उटा से नाव की रस्सी नहीं खोली । नाविक को रातभर मेहनत करके भी कुछ हाथ नहीं लगा। ठीक इसी प्रकार जो कोई मानव मुनि अवस्थारूपी नौका में बैठ गया है। काय-क्लेशरूपी नाविक उस नौका को बुद्धिमानी से खे रहा है किन्त अनादिकाल से जीवनरूपी नौका 'मोह'' रूपी खूटा से बँधी थी, उस खुटा से नहीं खोला और पैराग्य-ज्ञा संपन की पतवार से उसे नहीं खेया तो उस मुनि को उस मुनि अवस्थारूपी नौका से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता । अर्थात् ऐसा मुनि कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकता । उसका संसार-बंधन नहीं छूट सकता।
अज्ञानी और विषयासक्त जीवों की दशा वत्थु-समग्गो मूढो, लोही लब्भइ फलं जहा पच्छा । अण्णाणी जो विसया-सत्तो लहइ तहा चेवं ।।७३।। ___अन्वयार्थ ( जहा ) जैसे ( वत्थु-समग्गो ) समस्त पदार्थों से युक्त ( मूढ ) अज्ञानी ( लोही ) लोभी ( फलं ) फल को ( पच्छा ) बाद में ( लब्भइ ) प्राप्त करता है ( तहा ) उसी प्रकार ( अण्णाणी ) अज्ञानी जो ( विसयासत्तो) विषयों में आसक्त है (चेवं लहइ ) पीछे ही फल पाता है।
अर्थ—जैसे समस्त पदार्थों से युक्त अज्ञानी, लोभी, फल को बाद में पाता है वैसे ही विषयासक्त अज्ञानो भी पीछे फल पाता है।
यहाँ आचार्य देव का यह भाव है कि मूर्ख, अज्ञानी समस्त पदार्थों के रहते हुए भी उसका फल बाद में पाता है । क्योंकि यदि मूर्ख लोभी को