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रयणसार
अर्थ-भीतर में यदि पूज्य पुरुषों के प्रति भक्ति/श्रद्धा नहीं है तो उनके प्रति किया गया विनय कार्यकारी नहीं हैं । अन्दर में स्नेह के बिना महिलाओं का रुदन व्यर्थ ही है तथा वैराग्य के बिना संसार का त्याग मुक्ति का हेतु नहीं हो . . । अनः को टीमें गतिभित ही कहे गये हैं।
भाव शुन्य क्रिया से अलाभ सुहडो सूरत्त विणा, महिला सोहग्ग-रहिद परिसोहा । वेरग्ग-णाण-संजम हीणाखवणाण किंपिलब्भंते ।।७२।। ___ अन्वयार्थ-( सूरत ) शूरता ( विणा ) बिना ( सुहडो) सुभट ( सोहग्ग-रहिंद ) सौभाग्यरहित ( महिला ) स्त्री/नारी की ( परिसोहा ) शोभा/शृंगार तथा ( वेरग्ग-णाण-संजम ) वैराग्य, ज्ञान, संयम ( हीणा ) रहित ( खवणा ) क्षपणक/मुनि ( किं पि ) कुछ भी ( ण ) नहीं ( लब्भंते ) प्राप्त करते। ___अर्थ--शूरता वीरता रहित योद्धा/सुभट, सुहाग/सौभाग्य रहित स्त्री का शृंगार शोभा, वैराग्य-ज्ञान-संयम रहित मुनि कुछ भी प्राप्त नहीं करते। अर्थात् शूर-वीर योद्धा ही युद्ध-क्षेत्र में विजय प्राप्त कर सकेगा, यदि योद्धा वीर नहीं है तो युद्ध-क्षेत्र में पीठ दिखाकर भागेगा या प्राणों को खो देगा । अत: वीरता के अभाव में सुभट कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता ।
__ "नारी में गुण तीन हैं औगुण भरे हजार ।
पुत्र जने सरस रचे करे मंगलाचार" || नारी की शोभा सुहाग है । सुहाग रहित स्त्री का शृंगार उत्तम कार्य करके सफलता प्राप्त नहीं करता । वास्तव में वैधव्य प्राप्त होते ही कुलीन स्त्रियों को शृंगार का त्याग कर देना चाहिये। वैधव्य दीक्षा-"सुहाग की वस्तुओं का पूर्ण त्याग कर, श्रृंत वस्त्र धारण कर संयम से रहने वाली स्त्रियाँ घर में रहकर भी माध्वी संज्ञा प्राप्त कर लेती हैं'' | जबकि वैधव्य अवस्था प्राप्त कर भी जो शृंगार करती है वे निंदा को प्राप्त होती हैं तथा कुछ भी प्राप्त नहीं करती हैं।