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रयणासार
ज्ञानी और अज्ञानी अण्णाणीदो विसय-विरत्तादो होइ सय-सहस्स-गुणो । णाणी कसाय-विरदो विसयासत्तो जिणुद्दिष्टुं ।।७।।
अन्वयार्थ (क्सिय-विरत्तादो ) विषयों से विरक्त ( अण्णाणीदो ) अज्ञानी की अपेक्षा ( विसयासत्तो ) विषयों में आसक्त; किन्तु ( कसाय-विरदो ) कषाय से विरक्त ( णाणी ) ज्ञानी ( सयसहस्स-गुणो ) लाख गुणा फल ( होइ ) प्राप्त करता है, ( जिगुद्दिटुं) ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।
अर्थ-पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्त अज्ञानी की अपेक्षा पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्त किन्तु कषाय से विरक्त/रहित ज्ञानी जीव लाख गुना फल को प्राप्त करता है। ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
यहाँ आचार्य देव का अभिप्राय है कि अज्ञानी-मिथ्यात्व से युक्त है। अपनी दृष्टि को समीचीन नहीं बना पाया है अत: मात्र पंच-इन्द्रिय के विषय-स्पर्श, रसन, गंध, वर्ण और शब्दों में विरक्त होने पर भी बंधक ही है । क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में मिथ्यात्व व अनन्तानबंधी से युक्त वह अनन्त संसार का बंधक ही है । जबकि पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्त किन्तु मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषाय से रहित सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी जीव अनन्त संसार का बंधक नहीं होने से अनन्तगुणा फल को प्राप्त करता है।
वैराग्य के बिना भाव विणओ भत्ति-विहीणो, महिलाणं रोदणं विणा णेहं । चागो वेरग्ग विणा, एदेदो वारिआ भणिया ।।७१।।
__ अन्वयार्थ ( भत्ति-विहीणो ) भक्ति रहित ( विणओ ) विनय ( णेहं विणा ) स्नेह के बिना ( महिलाणं रोदणं ) महिलाओं का रोना/ रुदन और ( वेरग्ग विणा ) वैराग्य के बिना ( चागो ) त्याग ( एदेदो) ये सब ( वारिआ ) निषेध/ प्रतिषिद्ध ( भणिया ) कहे गये हैं।