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रयणसार
अन्वयार्थ ( पुव्वं ) प्रथमतः ( मिच्छा-मल-सोहण-हेउ ) मिथ्यात्वरूपी मल के शोधन के कारण ( सम्म-भेसज्जं ) सम्यक्त्वरूपी औषधि का ( सेवइ ) सेवन किया जाता है । ( पच्छा ) पश्चात् ( कम्मा-मय-णासण ) कर्म रूपी रोग का नाश करने के लिए ( चरिय भेसज्जं ) चारित्र रूपी औषधि का ( सेवइ ) सेवन किया जाता है।
अर्थ-~-प्रथमत: जीव मिथ्यात्वरूपी मल का शोधन करने के लिए कारणभूत सम्यक्त्वरूपी औषधि का सेवन करे, पश्चात् कर्मरूपी रोग का नाश करने के लिए चारित्ररूपी औषधि का सेवन करें ।
यह जीव अनादिकाल से मिथ्यात्वरूपी मल से मलीन हो रहा है उस मल का शोधन करने के लिए सम्यक्त्वरूपी औषधि का सेवन आवश्यक है । जैसे किसी जीव के शरीर में कब्ज के कारण मल इकट्ठा हो जाने पर मलीनतावश उसे जीवन में प्रमाद व आलस्य हो अनेक रोग सताने लगते हैं। तभी औषधि द्वारा उसके मल को निकालकर शुद्धि की जाती है, वह नौरोगता महसूस करता है पर कमजोरी का रोग अभी उसका पीछा पकड़े रहता है । फिर उसे शक्तिदायक स्वर्ण भस्म/मोती पिष्टी आदि देकर नीरोग किया जाता है । ठीक ऐसी ही स्थिति जीव की है । यह जीवात्मा मिथ्यात्वरूपी मल से गंदा/अशुद्ध/मलीन हुआ है। इस मल को निकालने की सर्वश्रेष्ठ औषधि सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के द्वारा मलीनता निकल जाने पर भी चारित्र मोहरूपी कर्म इसे ऐसा पीड़ित करता है, इतना कमजोर बनाये रखता है कि संयम धारण करने नहीं देता। इस कमजोरी/इस कर्म के रोग को औषधि है—चारित्र | चारित्ररूपी औषधि का सेवन करते ही, पूर्ण संयम का आराधक आत्मा परिणामों की विशुद्धि से चार घातिया कर्मों का क्षय कर "अनन्त वीर्य" को प्राप्त कर शाश्वत, अनंत काल के लिए पूर्ण नीरोग अवस्था को प्राप्त करता है।
“यह कर्म को नाश करने का क्रमिक उपाय है।' सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र/कायक्लेश के दारुण दुःखों का सहन करना प्रयोजन सिद्धिकारक नहीं हो सकता।