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रयणसार
कहने से क्या ( वेज्जो ) बैद्य ( वाही ) व्याधि को ( णस्सदे ) नष्ट कर देता है ?
अर्थ-अज्ञानी जीव इस प्रकार कहते हैं कि ज्ञानी मात्र ज्ञान के बल से कर्मों का क्षय करता है । मैं औषधि को जानता इतना कहने मात्र से क्या वैद्य रोग को नष्ट कर देता है ? नहीं । पूज्य श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रथम सूत्र दिया
"राम्गादर्णन ज्ञान वारिाष्गि मोशम:'। सूत्र का भाव है- सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है । मात्र दर्शन, मात्र ज्ञान, मात्र चारित्र या दर्शन-ज्ञान, दर्शनचारित्र, ज्ञान-दर्शन, ज्ञान-चारित्र से कभी मोक्षमार्ग नहीं बनता । आचार्य देव ने सूत्र में "ज्ञान" पद को मध्य दीपक रखा जिसका भाव है मुक्ति का मूल दर्शन व चारित्र हैं तथा ज्ञान का कार्य देहली के दीपक की तरह दर्शन व चारित्र दोनों की रक्षा करना है । छहढालाकार दौलतरामजी ने भी लिखा
“ज्ञानी के छिन माँहि, त्रिगुप्ति ते सहज टरै तें'। एक विशेषता यह भी है कि ज्ञान का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है । क्यों अल्प आठ प्रवचन मातृका का ज्ञान या ग्यारह अंग नौ पूर्व का भी ज्ञान हो । वही ज्ञान सम्यग्दृष्टि के आश्रय को पाकर सम्यक्ज्ञान संज्ञा पा लेता है और मिथ्यादृष्टि का आश्रय पा मिथ्याज्ञान की संज्ञा को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ आचार्य देव का अभिप्राय है कि जैसे एक वैद्य औषधि जानने मात्र से रोगी के रोग का नाश नहीं कर सकता वैसे ही ज्ञानी मात्र ज्ञान के बल से कर्मों का क्षय नहीं कर सकता । जो ज्ञान मात्र से कर्मक्षय होता है, ऐसा बोलते हैं वे अज्ञानी हैं ।
मोझपथ का पथ्य पुव्वं सेवइ मिच्छा मल-सोहण-हेउ सम्म भेसज्जं । पच्छा सेवइ कम्मा-मय-णासण चरिय-भेसज्ज ।।६९।।