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रयणसार
संयमी कौन ?
उवसम-तव-भाव- जुदो, णाणी सो ताव संजदो हो । पाणी कसाय - वसगो, असंजदो होइ सो ताव ।। ६७ ।।
अन्त्र्यार्थ - जो ( गाणी ) जानी ( उपसम-तव-भाव जुदो ) उपशम-तप-भाव से युक्त है ( सो ) वह ( नाव ) तब ( संजदो ). संयमी (होदि) है; ( णाणी ) ज्ञानी ( कसाय - वसगो ) जब कषाय के वश हो गया (ताव ) तब ( सो ) वह ( असंजदो ) असंयत ( होइ ) होता है।
अर्थ - ज्ञानी जब तक उपशम व तप-भाव से युक्त होता है तब तक वह संयमी है। ज्ञानी जब कषाय के वश हो गया तब वह असंयमी होता है ।
आचार्य कहते हैं- ज्ञानी सदा ज्ञानभाव में जीता है। क्रोधादि विभाव परिणामों का निमित्त मिलने पर भी "अहो कर्म वैचित्र्य" का चिंतन करता हुआ, सदा उपशम भाव व तप की साधना में लगा रहता है और तभी तक वह संयमी है । किन्तु जिस समय ज्ञानी अपने ज्ञानभाव से च्युत हो कषायों के वश हो जाता है, संयम- परिणाम उपशम व तप भाव से पतित हो जाता है; तत्काल वह असंयमी हो जाता है। मात्र पठन-पाठन से कोई ज्ञानी या संयमी नहीं बन सकता । उपशम भाव तथा तप भाव में लीनता ही ज्ञानी व संयमी का चिह्न है ।
मात्र ज्ञान कर्म क्षय का हेतु नहीं हो सकता पाणी खवेड़ कम्मं णाण- बलेणेदि बोल्लए अण्णाणी । वेज्जो सज्ज - महं, जाणे इदि णस्सदे वाही ।। ६८ ।।
अन्वयार्थ - ( अण्णाणी ) अज्ञानी ( इदि ) इस प्रकार ( बोल्लए) बोलता है कि ( णाणी ) ज्ञानी ( णाण-बलेण ) ज्ञान के बल से ( कम्म) कर्मों को ( खवेइ ) क्षय करता है । (अहं) मैं ( सज्जं ) औषधि को ( जाणे ) जानता हूँ ( इदि ) इतना मात्र