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रयणसार सहन करते हैं, किन्तु मिथ्यात्व को नहीं छोड़ते है/मिथ्यात्व का क्षय नहीं करने हैं। आचार्य देव कहते हैं विचार कीजिये कि क्या मिथ्यात्व को नाश किये बिना वे वास्तव में मुक्ति/मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकेंगे? कभी नहीं । छहढारनाकार दौलतरामजी लिखते हैं
सन लोक निहुँकाल माँई नहीं, दर्शन से सुखकारी । सकल धरम को मूल यही, इसबिन करनी दुखकारी ॥
बामी को पीटने से क्या लाभ ? ण हु दंडइ कोहाई, देहं दंडेइ कहं खवइ कम्मं । सप्पो किं मुवइ तहा, वम्मीए मारदे लोए ।।६६।। ___अन्वयार्थ–बहिरात्मा जीव ( कोहाई ) क्रोधादि-क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि को ( ण हु दंडइ ) दंडित नहीं करता ( देहं दंडइ ) शरीर को दंडित करता है तो वह ( कह ) किस प्रकार ( कम्मं खवइ ) कर्मों को क्षय करेगा/नष्ट कर सकता है ( तहा ) जैसे ( लोए ) लोक में ( वम्मीए ) बामी/साँप के बिल को ( मारदे ) मारने पर/नाश करने पर ( किं ) क्या ( सप्पो मुवइ) साँप/सर्प मरता है।
अर्थ-बहिरात्मा जीव क्रोध-मान-माया-लोभ-मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि को तो दंडित नहीं करता अर्थात् इनका त्याग तो नहीं करता मात्र शरीर को ही दंडित करता/सुखाता है । तो इससे वह कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है ? जैसे लोक में बामी को नष्ट करने पर साँप मरता है क्या ?
तात्पर्य यही है कि जैसे लोक में बामी को पीटने या नष्ट करने से सर्प नहीं मरता अत: बामी को पीटने से कोई प्रयोजन नहीं है। वैसे ही बहिरात्मा जीव क्रोधादि विभाव परिणामों को तो नष्ट नहीं करता मात्र काय-क्लेश आदि करके शरीर को कृश करता है तो इस विधि से कभी भी कर्मों का क्षय नहीं हो सकता है।