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रयासार
अर्थ-बहिगत्मा जीव बाह्यलिंग/बाह्यभेष, द्रव्य-लिंग-मुनिवेश, आर्यिका वेश, क्षुल्लक-शुल्लिका, देश, व्रती, त्यागी आदि नाना भेष धारण कर, संसार के लिय सुस्ट को भी जोड़ता है हा क्रियाकांड-घोर बाह्य तप, कठिन व्रताचरण आदि करता हुआ भी जन्म-मरण करता रहता है।
यहाँ तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन से रहित/आत्मा-अनात्मा के ज्ञान से शून्य जीव बहिरात्मा है । बहिरात्मा जीव ख्याति-पूजा-लाभ व भोगों के निमित्त वर्तमान में प्राप्त इन्द्रिय सुखों को छोड़कर बाह्य भेष धारण कर बाह्य क्रियाकांड में रत हो बाह्य तप तपता, व्रतों का आचरण भी करता है फिर भी जन्म-मरण के दुःखों से छूट पाता है—"दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम" । अर्थात् “सम्बग्दर्शन मूल है"। एक सम्यग्दर्शन के मिना बाह्य भेष, समस्त बाह्य क्रियाकांड व्रत तप आदि सब निष्फल जानो।
"सम्यक्त्व सहित अता-चरण, जगत में इक सार है | जिनने किया आचरण, उनको नमन सौ-सौ बार हैं' ||
मिथ्यात्व के नाश बिना मोक्ष नहीं मोक्ख-णिमित्तं दुक्खं, वहेइ परलोय-दिट्ठि तणुदंडी। मिच्छाभाव ण छिज्जइ, किं पावइ मोक्ख-सोख हि।।६५।।
अन्वयार्थ ( परलोयदिट्ठि) परलोक पर दृष्टि रखने वाला ( तणुदंडी ) शरीर को कृश करने वाला/अनेक प्रकार के कायक्लेश करने वाला बहिरात्मा जीव ( मोक्ख णिमित्तं ) मुक्ति के निमित्त (दुक्खं वहेइ ) दु:ख को सहन करता है; परन्तु ( मिच्छाभाव ण छिज्जइ ) मिथ्याभाव को/मिथ्यात्व का नाश नहीं करता -- तब वह ( किं ) क्या ( हि ) निश्चय से/वस्तुत: ( मोक्ख-सोक्ख ) मुक्ति सुख को (पावइ ) प्राप्त कर सकता है। ___अर्थ-परलोक पर दृष्टि रखने वाले, परलोक के सुखों के अभिलाषी, मात्र शरीर को सुखाने वाले अनेक प्रकार के कायक्लेश वाले बहिरात्मा जीव मुक्ति के सुखों के निमित्त अनेक कष्टों/उपसर्गों परीषहों/दुक्खों को