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स्यणसार
व्रत उपवास आदि ( बहवारं ) अनेक बार ( कोई ) करता है । ( है ) निश्चय से वह ( भव - तीरं ) संसार- समुद्र का तोर / किना। ( ण ) नही पाना है; फिर ( मूढमई ) यह मूर्ख (बहुदुक्ख ) अनेक दुक्ख ( किं वहेइ ) क्यों वहन करता है। क्यों उठाता है ।
अर्थ... आश्चर्य है कि यह आत्मा दारुण कठिन कर्म व्रत-नियम. उपवास आदि तो अनेक बार करता है पर मोह को नष्ट नहीं करता है। निश्चय ही है कि मोह को नष्ट किये बिना यह संसार समुद्र का किनारा नहीं पाता है; फिर भी मूढ़मति अज्ञानी अनेक प्रकार के दुःख क्यों उठाता है ? ___संसाररूपी साम्राज्य का अधिपति मोह है। मोहरूपी गजा का मंत्री अज्ञान हैं और राग द्वेष इसके सेनापति हैं। इस जीव पर अनादिकात्न से मोहरूपी राजा ने आधिपत्य जमाया है, अज्ञानरूपी मंत्री इसके सलाहकार बने हुए हैं तथा राग-द्वेषरूपी सेनापतियों का अनुशासन खतरे से बाहर नहीं है। ऐसी विकट स्थिति में फंसा जीव धोर तप-व्रत-उपवास पंचाग्नि तप तो करता है पर मोह राजा को वश में करने का पुरुषार्थ नहीं करता है । आचार्य देव कहत है माह सहन घोर तप भी संसार का छेद नहीं करता और मोहरहित थोड़ा तप भी संसार ..सागर से छुड़ाकर मुक्ति को पहुँचा देता है। अत: पहले मोह का त्याग करो अन्यथा व्यर्थ में कठोर तपस्यारूपी बोड़ा उठाने से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नही हैं।
मात्र भेष/लिंग से कल्याण नहीं धरियउ बाहिर-लिंगं, परि-हरियउ बाहि-रक्ख-सोक्ख हि । करियउ किरिया-कम्मंगरियउ जम्मियउ बहि-रप्प जीवो ।।६४।।
अन्वयार्थ---( बहि- राप्य जीवो ) बहिरात्मा जीव ( बाहिर लिंग ) बाह्य लिंग बाह्यभेष मात्र को ( धरियउ ) धारणकर ( बाहि-रक्ख सोक्ख ) इन्द्रिय जन्य बाह्य सुख को ( हि ) भी ( परि-हरियउ ) छोड़कर ( किरिया-कर्म ) क्रियाकांड-व्रताचरण आदि ( करियउ ) करता हुआ ( जम्मियउ मरियउ ) जन्म-मरण करता रहता है ।