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रयणसार
निर्णय स्वयं का सम्पत्त-गुणाइ सुगइ, मिच्छादो होइ दुग्गइ णियमा । इदि जाण किमिह बहुणा, जं रुच्चदि तं कुज्जाहो ।।६।।
अन्वयार्थ--( सम्मत्त-गणपाइ ) सम्यक्त्व आदि गुणों से ( सुगइ ) सुगति और ( मिच्छादो ) मिथ्यात्व से ( णियमा ) नियम से ( दुग्गइ ) दुर्गति ( होइ ) होती हैं । ( इदि ) इस प्रकार ( जाण ) जान ( इह ) यहाँ ( बहुणा किं ) बहुत कहने से क्या लाभ ? (जं ) जो ( रुच्चदि) अच्छा लगे ( तं ) वह ( कुज्जाहो ) करो।
अर्थ-सम्यक्त्व गुण से नियम से सुगति होती है और मिथ्यात्व से दुर्गति होती है, ऐसा जानकर जो अच्छा लगे सो करो, बहुत कहने से क्या प्रयोजन ? आचार्य समन्तभद्र स्वामी रत्नकरण्डश्रावकाचार ग्रंथ में लिखते हैं
न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् काल्ये त्रिजगत्यपि |
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनुभृताम् ।। हे संसारी प्राणियों ! आपके लिए सम्यक्त्व के समान तीन लोक, तीन काल में अन्य कोई कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी भी कोई नहीं है । सम्यग्दृष्टि जीव नारकी, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्री, दुष्कुल, विकृतरूप, अल्पायु, दरिद्रता आदि को कभी भी प्राप्त नहीं होता और मिथ्यादृष्टि बार-बार नरक-तिर्यंच आदि दुर्गतियों में भ्रमण करता है । अत: विवेक से काम करो अथवा आप को जो रुचे वही करो । प्रत्येक जीवात्मा ज्ञानमयी हैं अत: अधिक कहने से क्या लाभ !
मोहीजीव के भवतीर नहीं मोह ण छिज्जइ अप्पा, दारुण कम्मं करेइ बहुवारं । ण हु पावइ भव-तीरं, किं बहु-दुक्ख वहेइ मूढमई ।।६३।।
अन्वयार्थ—( अप्पा ) यह आत्मा ( मोह ) मोह को ( ण छिज्जइ ) नष्ट नहीं करता है ( दारुण कर्म ) दारुण कठिन कर्म