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रयणसार
अन्वयार्थ—क्रमश: ( छप्पण) छह पाँच ( दव्वत्यिकाय ) द्रव्य और अस्तिकाय ( सत्त-णवगेसु ) साततत्त्व नव-पदार्थ ( बंध-मोक्खे ) बन्ध और मोक्ष ( तक्कारण-रूवे) उसके कारण स्वरूप ( वारसणुवैक्खे ) बारह अनुप्रेक्षाओ रवणत्यस्त-रूवे ) रत्नत्रयस्वरूप ( अज्जा-कम्मे ) आर्य कर्म में ( दयाइ-सद्धम्मे ) दया आदि सद्धर्भ में ( इच्चेव माइगे ) इत्यादि में ( जो ) ( वट्टइ ) वर्तन होता है ( सो ) वह ( सुहभावो ) शुभ भाव ( होइ ) होता है।
अर्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल छह द्रव्य । जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश पाँच अस्तिकाय । जीव-अजीवआस्रव-बंध-संवर-निर्जरा व मोक्ष सात तत्त्व । जीव-अजीव-आस्रव-बंधसंवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्य व पाप नौ पदार्थ । बंध और मोक्ष । बंध व मोक्ष के कारण 1 अनित्य-अशरणा-संसार-एकत्व-अन्यत्व-अशुचि-आस्रव-संवरनिर्जरा लोक व बोधि-दुर्लभ बारह भावना । सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान, सम्याचारित्र रत्नत्रय स्वरूप । देव-पूजा; गुरुपास्ति-स्वध्याय-संयम-तप व दान आदि आर्य-कर्म दया आदि समीचीन/ सत्यधर्म इत्यादि के चिंतन इनके स्वरूप को जानकर तद्प आचरण में जो वर्तन होता है, वह शुभ भाव होता है।
शुभ भाव परम्परा से मुक्ति का कारण है । जीव के अशुभ भावशुभभाव और शुद्ध भाव ये तीन भाव हैं । इनमें अशुभ भाव तो सर्वथा हेय ही है और जब तक जीवों की परिणति शुद्ध में तन्मय नहीं होती तब तक शुभयोग ही कार्यकारी/उपादेय है । हे भव्यात्माओं ! अशुभ का त्याग करो, शुभ में प्रवृत्ति करो और शुद्ध का लक्ष्य रखो, यही जिनेन्द्रदेव की अनेकांतमयी देशना है। अत: अशुभ भाव सर्वथा हेय हैं, अशुभ की अपेक्षा शुभ भाव उपादेव हैं और शुद्ध की अपेक्षा शुभभाव गौण हैं, इस प्रकार वस्तु व्यवस्था का ज्ञान कर जैसी अपनी अवस्था है तदनुसार व्यवस्था का आचरण करना श्रेयस्कर है।