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रयणसार
में { असुयगेसु ) ईर्ष्या में ( दंडेसु ) असंयमों में ( सल्लेसु ) शल्यों में ( य ) और ( गारवेसु ) गारवों में ( जो ) जो ( वट्टदि ) वर्तन होता है ( सो ) वह ( असुह-भात्रो ) अशुभ-भाव है ।
अर्थ—टिंगमा झूट-चोरी कुशील परिमुष्ट पान गणों में सोन-मानमाया-लोभ चार कषायों में, कुमति-कुश्रुत आदि मिथ्या ज्ञानों में, पक्षपातों! सत्य न्याय के अभाव में, मात्सर्य में, ज्ञान-पूजा-कुल-ऋद्धि-जाति-तपबल-वपु इन आठ मदों में खोटे/दुष्ट अभिप्रायों में, कृष्ण-नील-कापोत तीन लेश्याओं में, राजकथा, भोजनकथा, स्त्री कथा-चोर कथा, चार विकथाओं में, चार आर्तध्यान-इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा चिन्तन, निदान, बंध, चार रौद्रध्यान-हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चोर्यानन्दी व परिग्रहानंदी में, ईर्ष्या असूयं परिणाम में छ: प्रकार के इन्द्रिय असयंम-पाँच इन्द्रिय छठे मन को वश नहीं करना । छह प्रकार का प्राणी संयम-पाँच स्थावर, एक त्रस छहनिकायों में दया नहीं पालना रूप असंयमों में, माया-मिथ्यानिदान तीन शल्यों तीन गारव-शब्द गारव, ऋद्धि गारव और सात गारव रूप अहंकार में, मान बढाई रूप परिणामों में वर्तन करने वाले परिणाम अशुभ भाव हैं। वर्ण के उच्चारण का गर्व करना शब्द गारव है । शिष्य पुस्तक कमण्डलु-पिच्छि या पट्ट आदि द्वारा अपने को ऊँचा प्रकट करना ऋद्धि गारव है तथा भोजनपान आदि से उत्पन्न सुख की लीला से मस्त होकर मोहमद करना सात गारव है। [ मो.पा.टी.२७/३२२/१] __ ये अशुभ भाव सर्वथा त्याज्य हैं। क्योंकि ये अशुभ गति के व अशुभ आयु के निमित्त हैं -
शुभभाव रूप परिणाम दब्वत्यिकाय छप्पण तच्च-पयत्येसु सत्त-णवगेसु । बंधण-मोक्खे तक्कारण-रूवे वारस णुवेक्खे ।।६।। रयणत्तयस्य-रूवे अज्जाकम्मे दयाइसद्धम्मे । इच्चेव माइगे जो वट्टइ सो होइ सुहभावो ।। ६१ ।।