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रयणसार
जो रुखे सो करोअसुहादो णिरयाऊ, सुह- भावादो दु सग्ग- सुहमाओ । दुह- सुह- भावं जाणदु, जं ते रुच्चेड़ तं कुज्जा ।। ५७ ।।
अन्वयार्थ - [ हे भव्यात्माओं ! ] ( असुहादो णिरयाऊ ) अशुभ भावों से नरक आधु (टु ) और ( सुह-भावादो; शुभ भावों से सम्म सुहमाओ ) स्वर्ग सुख व स्वर्ग आयु प्राप्त होती है । ( दुह-सुह भावं ) दुख व सुख भावों को ( जाणदु ) जानो तथा ( ते ) तुम्हें ( जं ) जो ( रुच्चेइ ) रुचे (तं ) उसको ( कुज्जा ) करो ।
अर्थ--- हे भव्यात्माओं ! अशुभ भावों से नरकायु के असह्य दुख और शुभ 'भावों से स्वर्ग के उत्तमोत्तम सुख व देवायु की प्राप्ति होती है। दुख-सुख, नरक - स्वर्ग को अच्छी तरह जानों, पश्चात् तुम्हें जैसा रुचे वैसा करो ।
जैनाचार्य यहाँ भव्य जीवों को सवेत करते हुए कह रहे हैं- मैं आप लोगों को मात्र मार्ग बता सकता हूँ। सही मार्ग का चयन, असत्य मार्ग का त्याग रूप पुरुषार्थ आपके विवेक पर निर्भर है, सही मार्ग पर चलना आप का स्वयं का कर्तव्य हैं, अतः आप लोगों को जो रुचे सो करिये। अशुभभाव रूप परिणाम
हिंसाइसु कोहाइसु मिच्छा - णाणेसु पक्खवाएसु । मच्छरिएसमएस दुरहि- णिवे सेसु असुह- लेस्सेसु ।। ५८ ।। विकहाइसु रुद्दट्ट - ज्झाणेसु असुयगेसु दंडेसु । सल्लेसु गारवेसु य, जो वट्टदि असुह- भावो सो ।। ५९ ।।
अन्वयार्थ ---( हिंसाइसु ) हिंसा आदि में ( कोहादिसु ) क्रोध आदि में (मिच्छा णाणेसु ) मिथ्या ज्ञानों में ( पक्खवाए सु ) पक्षपातों में ( मच्छरिएसु } मात्सर्य में (मएस) मदों में ( दुरहि- णिवेसेसु ) दुरभिनिवेशों / दुष्ट अभिप्रायों में ( असुह-लेस्सेसु ) अशुभलेश्याओं में (विकहाइसु ) विकथाओं में ( रुद्दट्ट ज्झाणेसु) रौद्र- आर्त्तध्यानों