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रयणसार
अर्थ – आज भरत क्षेत्र अवसर्पिणी काल में आर्त- रौद्रध्यान युक्त, नष्ट, दुष्ट, पापी तथा कृष्ण-नील कापोत लेश्या वाले जीव अधिक मात्रा मे देखे जाते हैं ।
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वर्तमान में भरत क्षेत्र में हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है। यह काल असंख्यात कल्प काल बीतने के बाद आता है। आज चारों ओर प्राय: लोग आर्स- रौद्रध्यान से दुःखी/संक्लेशित हैं, धन-जन- तेज आदि से हीन होने से नष्ट हैं, दया करुणा- अनुकंपा नहीं होने से दुष्ट/ निर्दयी हो गये हैं, पापभीरुता मानव-मन से निकल चुकी है अत: पापी तथा कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं से युक्त दिखाई दे रहे हैं यह सब हुण्डावसर्पिणी काल का ही प्रभाव है । क्योंकि इस काल में अनहोनी घटनाएँ होती ही हैं ।
आर्त्तध्यान व उसके भेद - दुःख या पीड़ा रूप ध्यान को आत्तंध्यान कहते हैं। इस ध्यान के ४ भेद हैं-- १. इष्ट वियोगज, २. अनिष्ट संयोगज ३. पीड़ा चिन्तन और ४. निदान बन्ध ।
रौद्रध्यान - रुद्रता में होने वाला ध्यान रौद्रध्यान हैं । इसके भी चार भेद हैं ? हिंसानन्दी २ मृषानन्दी ३ चौर्यानन्दी और ४. परिग्रहानन्दी | सम्यग्दृष्टि जीवों की दुर्लभता
अज्ज वसप्पिणि भरहे पंचम याले मिच्छ- पुव्वया सुलहा । सम्मत्तपुव्व सायारणयारा दुल्लहा होंति । ३५५ । ।
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अन्वयार्थ --- ( अज्ज वसप्पिणि) आज / वर्तमान अवसर्पिणी [ हुण्डावसर्पिणी ] काल में ( भरहे ) भरत क्षेत्र में ( पंचम-याले ) पंचम / दुःखम काल में (मिच्छ - पुल्वया ) मिथ्यादृष्टि जीव ( सुलहा ) सुलभ हैं; किन्तु ( सम्मत्त-पुव्व ) सम्यग्दृष्टि ( सायारणयारा) गृहस्थ और मुनि दोनों दुर्लभ ( होंति ) होते हैं ।
अर्थ — भरत क्षेत्र में अभी वर्तमान काल में पंचम काल में अवसर्पिणी काल उसमें भी अनहोनी बातों को करने वाला विचित्र ऐसा हुण्डावसर्पिणी