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रयणसार
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काल चल रहा है । इस पंचम/दु:खम कान में भरतक्षेत्र में मिथ्यादृष्टि जीव सुलभ हैं; किन्तु सम्यग्दृष्टि गृहस्थ और मुनि दोनों ही दुर्लभ हैं। पंडित आशाधरजी लिखते हैं
कलिप्रावृषि मिथ्यादिङ् मेघन्छनासु दिक्ष्विह । खद्योतवत्सुदेष्टारो हा द्योतते क्वचिद् क्वचित् ।। ७ ।। [ सा.ध]
खेद हैं कलिकाल विस्तार को प्राप्त है, मिथ्यात्वरूपी बादल दसों दिणाण में डग रहे है. ऐसे समय में सम्यग्दृष्टि सदुपदेश जुगनू की तरह कहीं-कही हो चमकते हुए दिखाई देंगे।
निर्मल, शुद्ध सम्यक्त्व 'कतक-फल- भरिय-णिम्मलजलं ववगय कालिमा सुवण्णंच । मल-रहिय-सम्म-जुत्तो भव्बवरोलहइ लहु सोक्खं ।।५५।।
अन्वयार्थ ( कतक-फल ) निर्मली ( भरिय ) भरित/युक्त ( णिम्मल जलं ) निर्मल/पवित्र जल ( च ) और ( ववगय कालिमा) किट्टकालिमा से रहित ( सुवण्णं ) स्वर्ण [ के समान ] ( मल-रहियसम्प-जुत्तो )२५ मल दोषों से रहित, सम्यक्त्व युक्त ( भव्बवर ) भव्योत्तम: निकट भव्य जीव ( लहु ) शीघ्र ही ( सोक्खं ) भुक्ति व मुक्ति के शाश्वत उत्तम सुख को ( लहइ ) प्राप्त करता है।
अर्थ जैसे नदी का बरसाती गॅदला जल पीने के अयोग्य होने से उसमें निर्मली कतकफल डालने पर वह शुद्ध पेय पीने योग्य हो जाता है । खान से निकल स्वर्ण पाषाण किट्ट कालिमा से युक्त होने से सामान्य पाषाण की कीमत को ही प्राप्त करता है किन्तु वही स्वर्ण सुनार के १६ ताव लगकर किट्ट कालिमा से कीमत रहित बहुमूल्यता को प्राप्त हो जाता है। वैसे ही जो अनादिकाल से कर्म रूप किट्टकालिमा युक्त जीव संसार में भ्रमण कर मलीन हो रहा है। वही भव्योत्तम २५ मल दोषों रहित शुद्ध/ निर्मल सम्यक्त्वरूपी रत्न को प्राप्त कर सहज ही/शीघ्र ही लीला मात्र मे १- व प्रति में उपलब्ध गाथा नं. ५५