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रयणसार
समय का उपयोग सम्माइट्ठी कालं बोल्लइ वेरग्ग-णाण भावेण । मिच्छाइट्टी वांछा दुब्भावा-लस्स-कलहेहिं ।।५३ । ।
अन्वयार्थ—( सम्माइट्ठी ) सम्यग्दृष्टि ( कालं ) का समय ( वेरग्ग-गाण-भावेण ) वैराग्य और ज्ञान भाव से ( बोल्लइ ) बीतता है ( मिच्छाइट्ठी कालं ) मिथ्यादृष्टि का समय ( वांछा ) इच्छा/वांछा/ तृष्णा/( दुब्भावा-लस्स ) दुर्भाव/अशुभभाव व आलस्य तथा ( कलहेहिं ) कलह झगड़े में बीतता है। ___अर्थ-- सम्यग्दृष्टि जीव अपना समय वैराग्य और ज्ञान भाव से व्यतीत करता है जबकि मिथ्यादृष्टि आकांक्षा/इच्छा-तृष्णा/वांछा, दुर्भावना, आलस्य और कलह से अपना समय व्यतीत करता है ।
अमृतचन्द्राचार्य देव लिखते हैं..."सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञान वैराग्य शक्ति" "सम्यग्दृष्टि जीवों के अन्दर ज्ञान और वैराग्य की शक्ति निश्चय ही होती हैं। अत: उनका अमूल्य जीवन ज्ञान और वैराग्य से आत्मा की साधना में बीतता है । मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञान रूपी निद्रा में सुप्त हुआ रागरूपी मदिरा का पान करता रहता है अत: उसका समय तृष्णा, अशुभ भावना, प्रमाद और लड़ाई-झगड़ो में बीतता है।
भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल अज्जव-सप्पिणी भरहे, पउरा रूहट्ट झाणया दिट्ठा । णट्ठा दुट्ठा कट्ठा पापिट्ठा किण्ण-णील-काओदा ।।५४।। ___ अन्वयार्थ—( अज्जव-सप्पिणी ) आज वर्तमान/हुण्डावसर्पिणी काल में ( भरहे ) भरत क्षेत्र में ( रूद्दछ-झाणया ) रौद्र व आर्तध्यान युक्त जीव (गट्ठा ) नष्ट ( दुट्टा ) दुष्ट ( कट्ठा ) कष्ट ( पापिट्ठा) पापिष्ट ( किण्ण-णील-काओद ) कृष्ण-नील-कापोत लेश्या वाले ( पउरा ) अधिक ( दिट्ठा ) देखे जाते हैं ।