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यासार
अर्थ---मिथ्याष्टि जोब भुलक्कड़ पागल की तरह व्यर्थ बोलता है। बकवास करता है इसलिये वह अपनी आत्मा और आत्मा के साम्य/समतामय अमूल्य भाव को नहीं जानता है । तात्पर्य यह कि मिथ्यादृष्टि सत्य को सत्य, असत्य को सत्य, सत्य को असत्य कहता हुआ व्यर्थ प्रलाप करता रहता हैं फलत: अपने आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ वह आत्मा के असली स्वभाव-समताग्स के रसास्वादन का आनंद नहीं ले पाता है।
उपशम भाव के कार्य पुव्वट्टि खवइ कम्म, पविसदु णो देइ अहिणवं कम्मं । इह-परलोय महप्पं, देइ तहा उवसमो भावो ।। ५२।।
अन्वयार्थ [भव्य जीवों का ] ( उवसमो भावो ) उपशम भाव ( पुचट्ठिद कम्म ) पूर्वस्थित/पूर्वबद्धकर्मों का ( खवइ ) क्षय करता है ( अहिणवं कम्म ) अभिनव कर्मों को ( पविसदु णो देइ ) प्रवेश नहीं देता है ( तहा ) तथा ( इह-परलोयं ) इस लोक व परलोक में ( महप्पं ) महत्व/माहात्म्य को ( देइ ) देता है। ___अर्थ---भव्य जीवों का उपशमभाव अनादि काल से बद्ध पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जरा/क्षय करता है तथा अभिनव/नवीन कर्मों का आत्मा में संवर करता है और इस लोक व परलोक में जीव के माहात्म्य को प्रकट करता है।
भव्यजीव के उपशमभाव से ३ कार्य सिद्ध होते हैं—१.पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा, २. नवीन कर्मों का संवर और ३. उभय लोक मे यश-कीर्तिमाहात्म्य की प्रसिद्धि । यहाँ आचार्य देव का तात्पर्य है-हे भव्यात्माओं ! उपशम भाव को प्राप्त करो । अनादिकालीन मिथ्यात्व की बेड़ी में जकड़े जीव के सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्त्व ही होता है और एक बार औपशमिक सम्यक्त्व होते ही उसका अनन्त संसार हमेशा के लिए छूट जाता हैं । औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति मे अग्रसर उपशम भाव का धारक जीव, ३४ बंधापसरण करता हुआ सम्यक्त्व के अभिमुम्न हो पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा, आने वाले नवीन कर्मों का संवर करता हुआ उभय लोक में माहात्म्य को प्रकट करता है ।