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रयणसार चारित्र. तपाचार व मोक्षगति के रहस्यमयी सुख, जिनेन्द्र देव की महिमामयी वाणी को देख्न और जान सकता है । इसलिये अपनी दृष्टि को समीचीन बनाना ही धर्मज्ञ का कर्तव्य है।।
मिथ्यादृष्टि की पहचान ऍक्क खणंण वि चिंतइ, मोक्ख-णिमित्तं णियप्प-सहावं । अणिसं विचिंत्तइ-पावं बहुला-लावं मणे विचिंतेइ ।।५।।
अन्वयार्थ- [भिःयादृष्टि जीप मोक्त-निमित्त ) मुक्तिप्राप्ति में निमित्तभूत ( णियप्पसहावं ) अपने आत्म स्वभाव को ( एक्क खणं वि ) एक क्षण मात्र भी ( चिंतइ ) चिंतन ( ण ) नहीं करता है ( अणिसं ) निरन्तर रात-दिन ( पावं ) पाप का ( विचिंतइ ) चिंतन करता है और ( मणे ) मन में ( बहुला-लावं ) बहुत से दूसरों के प्रति ( विचितेइ ) सोचता रहता है।
अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीव मुक्ति प्राप्ति में निमित्त भूत अपने आत्मस्वभाव का एक क्षण भी चिंतन नहीं करता है, रात-दिन पाप का चिंतन करता है
और मन में दूसरों के प्रति बहुत बातें सोचता रहता है । अर्थात् मिथ्यादृष्टि संसार को बढ़ाने वाली पाप रूप बातों का तो निरंतर चिंतन करता है, पर अपने आत्म स्वभाव का एक क्षण भी चिंतन नहीं करता है ।
साम्य-भाव का घातक मिच्छामइ मय-मोहासव-मत्तो बोल्लएँ जहा-भुल्लो । तेण ण जाणइ अप्पा, अप्पाणं सम्म- भावाणं ।।५१।।
अन्वयार्थ—( मिच्छामइ ) मिथ्यादृष्टि जीव ( जहा-भुल्लो ) भुलक्कड़ के समान ( मय-मोहासव-मत्तो-बॉल्लर ) मद-मोह रूपी मदिरा से मस्त होकर व्यर्थ बोलता है ( तेण ) इसलिये वह ( अप्पा)
आत्मा और ( अप्पाणं ) आत्मा के ( सम्म-भावाणं ) साम्य भाव को ( ण ) नहीं ( जाणइ ) जानता है ।