________________
1
३०
रमणसार
अन्वयार्थ - ( जहा ) जैसे ( तणु-कुट्ठी) शरीर का कोढी व्यक्ति ( कुलभंगं कुणइ ) कुल का नाश करता है ( तहा ) उसी प्रकार (मिच्छे वि) मिथ्यात्व भी ( अप्पणो ) आत्मा के ( दाणाइ सुगुण भंगं ) दान आदि उत्तम गुणों का नाश करने वाला और ( गइ-भंगं ) सद्गति का नाशक है ( हो ) अहो ( मिच्छ-मेव कटुं ) मिथ्यात्व ही कष्ट है। -जैसे शरीर का कोढ़ी / कुष्ट रोग से दूषित व्यक्ति अपने रक्तसम्बन्ध से अपने कुल का विनाश कर देता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व भी आत्मा के दान-पूजा आदि उत्तम / सद्गुणी का नाश करने वाला और सद्गति का विनाशक हैं, अहो ! मिथ्यात्व ही कष्ट हैं। तात्पर्य है कि मिथ्यात्वरूपी कुट ने अनादिकाल से जीव के उत्तमोत्तम गुणों का विनाश किया है, उत्तमगति में जाने में विरोध किया है। तीन लोक तीन काल में मिथ्यात्व ही सबसे बड़ा कए हैं। का मूल सार हैं।
अर्थ
-
सम्यग्दृष्टि ही धर्मज्ञ है
देव-गुरु- धम्म-गुण- चारित तवायार- मोंक्ख - गइभेयं । जिणवयण सुदिट्टि विणा, दीसइ किं जाणए सम्मं ।। ४९ । ।
·
अन्वयार्थ – ( देव-गुरु-धम्म-गुण-चारित तवायार- मोक्खगइयं ) देव-गुरु- धर्म - गुण चारित्र तपाचार - मोक्षगति का रहस्य ( जिणवयण ) जिनदेव के वचन ( सुदिद्विविणा ) सम्यग्दृष्टि बिना ( किं ) क्या ( सम्मं ) समीचीन रूप से ( दीसए - जापए ) देखे - जाने जा सकते हैं ? अर्थात् नहीं । सम्यग्दृष्टि के द्वारा ही सम्यक् प्रकारेण देखे जा सकते हैं व जाने जा सकते हैं । ]
-
अर्थ - देव - गुरु- धर्म - गुण चारित्र तपाचार और मोक्षगति का रहस्य तथा जिनदेव के वचन सम्यग्दृष्टि के बिना क्या समीचीन रूप से देखें व जाने जा सकते हैं ? सम्यग्दृष्टि ही सबको देखता व जानता हैं ।
यहाँ आचार्य देव के कथन का भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव ही समीचीन रूप से सच्चे-देव, निग्रंथ गुरु, अहिंसामयी धर्म, आत्मा के अनन्तगुण,