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रयणसार
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अतः मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी रूप सम्यक्त्व को प्राप्त करने का पुरुषार्थ
करो ।
सम्यक्त्व की हानि कैसे ?
कुतव कुलिंगि कुणाणी, कुवय कुसीले कुदंसण कुसत्थे । कुणिमित्ते संयुय थुइ, पसंसणं सम्म हाणि होइ णियमं ।। ४७ ।।
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अन्वयार्थ - - ( कुतव ) कुतप ( कुलिंग ) कुलिंगी / मिथ्यावेष धारण करने वाले में ( कुणाणी ) मिथ्याज्ञानी में ( कुवय ) कुत्रत में (कुसीले ) कुशील/मिथ्याशील में ( कुदंसण ) मिथ्यादर्शन में ( कुसत्थे ) कुशास्त्र में ( कुणिमिते ) मिथ्या निमित्तों में ( थुइ ) स्तुति ( संथुय ) संस्तुति तथा ( पसंसणं ) प्रशंसा करने से ( नियम ) नियम से ( सम्म हाणि ) सम्यक्त्व की हानि ( होइ ) होती हैं।
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अर्थ - मिथ्यातप का आचरण करने वाले, मिथ्याभेष धारक, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याव्रतों के आचरण करने वाले, मिथ्याशील के धारक, मिथ्यादृष्टि, कुशास्त्र याने हिंसा की पुष्टि करने वाले मिथ्या - शास्त्र और मिथ्या निमित्तों की स्तुति, संस्तुति तथा प्रशंसा करने से सम्यक्त्व गुण की हानि नियम से होती हैं ।
तत्वार्थसूत्र ग्रंथ में उमास्वामि आचार्य ने मिथ्या श्रद्धानी, मिथ्याज्ञानी व मिथ्याचारित्र के आराधकों की प्रशंसा व स्तुति करने को सम्यग्दर्शन अतिचार / सम्यक्त्व की हानि कहा है। यहाँ भी आचार्य देव कुन्दकुन्द स्वामी का भी भाव यही है कि संसार सागर में डुबोने वाले कुगुरु-कुदेवकुशास्त्र और कुगुरु सेवक, कुशास्त्र सेवक व कुदेव सेवक ये छ: अनायतन हैं। ये सम्यक्त्व को दूषित करने वाले हैं, सम्यक्त्व की हानि करने वाले हैं। अतः सम्यग्दृष्टि जीव इनकी स्तुति व प्रशंसा न करें ।
अहो ! सबसे बड़ा कष्ट मिथ्यात्व
तणु- कुट्ठी कुलभंगं, कुणइ जहा मिच्छ- मध्यणो वि तहा । दाणाइ सुगुण भंगं, गड़-भंगं मिच्छ मेव हो कटुं ।। ४८ । ।
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