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मक्खी स्वभावी
रयणसार
रोपा।
माखी गुड़ में गड़ी रहे. हाथ मले और सिर धुने, लालच बुरी बला ॥
मक्खी के समान लोभी जीवों को धर्म की रुचि नहीं होती हैं अतः वे धर्म के विनाशक हैं। कहा भी है
पापी लोभी जीव को, धर्म कथा न सुहाय । कैऊँगे के लड़-मरे, के उठ घर को जाय ।।
जोंक स्वभावी - जोंक सदा खून चूसती हैं उसी प्रकार जो जीव गुणों को छोड़कर अवगुणों को ग्रहण करते हैं, वे जोक स्वभावी जीव धर्म-विनाशक हैं।
रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन की मुख्यता
सम्म विणा सण्णाणं, सच्चारित्रं ण होइ नियमेण । तो रयणत्तय मज्झे, सम्म - गुणु - विकट्ठ- मिदि जिणुदिनं ।। ४६ ।।
अन्वयार्थ -- ( सम्म विणा ) सम्यग्दर्शन के बिना ( सण्णाणं ) सम्यग्ज्ञान व ( सच्चारित्रं ) सम्यग् चारित्र ( णियमेण ) नियम से (ण) नहीं (होइ ) होते हैं ( तो ) इसीलिये ( रयणत्तय मज्झे ) रत्नत्रय में ( सम्म गुणु-किट्ठे ) सम्यग्दर्शन गुण उत्कृष्ट हैं ( इदि ) ऐसा ( जिद्दिहं ) जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
अर्थ सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यम्चारित्र नियम से नहीं होते हैं अतः रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन गुण उत्कृष्ट हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । इसी भाव को छहढालाकार दौलतराम जी लिखते हुए कहते हैंमोक्षमहल की परथम सीढ़ी या बिन ज्ञान चारित्रा । सम्यक्ता न लहे सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा | दौल समझ सुन चेत सयाने काल वृथा मत खोवे।
यह नर - भव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहीं होवे ॥
हे भव्यात्माओं ! सम्यग्दर्शन के बिना ग्यारह अंग नौ पूर्व का पाठी भी मिथ्याज्ञानी और घोर तपस्वी की कुचारित्र आराधक कहलाता है ।