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स्यणसार नेत्र रोग, सिर पीड़ा/सिर के रोग ( सीदुण्ह-वाहिराइ ) शीत से, उष्णता से, शीतोष्ण से होने वाली सन्निपात आदि व्याधियाँ—ये सब ( पूया-दाणंतराय-कम्म-फलं ) पूजा-दान आदि धर्म कार्यों में किये गये अन्तराय कर्म का फल है। ___ अर्थ–क्षय रोगटी.बी. आदि कुष्ठरोग, मूल व्याधि, लूता-वातरोग अथवा मकड़ी का फरना, भगंदर, जलोदर, नेत्र रोग, सिर के रोग, शीत, उष्ण व शीतोष्ण से उत्पन्न सन्निपात, पित्तज्वर, जुकाम आदि व्याधियां ये सब पूजा-दान आदि धर्म-कार्या में किये गये अन्तराय कर्म का फल है ।
वंदना और स्वाध्याय आदि धर्म कार्यों में विघ्न डालने का फल णरय-तिरियाइ-दुगइ-दारिद्द-वियलंग-हाणि-दुक्खाणि । देव-गुरु-सत्थ-वंदण-सुद-भेद-सज्झय-विधण-फलं ।।३७।। ___अन्वयार्थ (णरय ) नरक ( तिरियाइ ) तिर्यच आदि ( दुगइ ) दुर्गति ( दारिदं ) दरिद्रता ( वियलंग ) विकलांग ( हाणि ) हानि [व्यापारादि कार्यों में ] ( दुक्खाणि ) और दुख ये सब ( देव-गुरुसत्यवंदण ) देव-वन्दना, गुरु-वन्दना, शास्त्र-वन्दना (सुद-भेद-सज्झयविषण-फलं ) श्रुतभेद, स्वाध्याय में विघ्न करने का फल है।
अर्थ-नरक-तिर्यच आदि दुर्गति, दरिद्रता, विकलांग, हानि [ व्यापारादि कार्यों में ] और दुःख, ये सब देव-वन्दना, गुरु-वन्दना, शास्त्र-वन्दना, श्रुतभेद
और स्वाध्याय में विघ्न करने का फल हैं । अर्थात् जो जीव देव-शास्त्र-गुरु की वन्दना में विघ्न करता है, श्रुत भेद करता है और स्वाध्याय में विघ्न करता है वह नरक, तिर्यंच आदि दुर्गति को प्राप्त करता हुआ. विकलांगी, हानियुक्त होकर संसार के सभी विचित्र दुखों को प्राप्त होता है।
___ पञ्चमकाल में विशुद्धि की होनता [ काल-प्रभाव] सम्म-विसोही-तव-गुण-चारित्त-सपणाण-दाण-परिहीणं । भरहे दुस्सम-याले, मणुयाणं, जायदे णियदं ।।३८।।