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रयासार
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अन्वयार्थ—इस { भरहे ) भरतक्षेत्र में (दुस्सम याले ) दुःखमा पञ्चमकाल में( मणुयाणं ) मनुष्यों के ( सम्म-विसोही ) सम्यक्त्व की विशुद्धि ( तव-गुण-चारित-सण्णाण-दाण-परिहीणं ) तप, गुण, चारित्र, सम्यक्ज्ञान, दान में परिहीनता ( णियदं ) निश्चित ही ( जायदे ) होती है।
अर्थ- इस भरत क्षेत्र में दुःखभा पञ्चमकाल मे मनुष्यो के सम्यक्त्व की विशुद्धि तप, गुण, मूलगुण, उत्तरगुण, सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान व दान में द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव की अपेक्षा हीनता नियम से होती है । अर्थात् इस पंचम काल का ऐसा ही प्रभाव है कि इस समय भरत-क्षेत्र में क्षायिक सम्यकदृष्टि, तपस्वी, मूलगुणों के व उत्तरगुणों के पूर्ण धारक/पालक व सम्यक्चारित्र/ चारित्र ज्ञान और सुपात्र दान इनमें परिहीनता नियम से देखी जाती है।
दुर्गति का पात्र कौन ? णहि दाणं णहि पूया णहि सीलं णहि गुणं ण चारित्तं । जेजइणा भणिया तेणेरइया होति कुमाणुसा तिरिया ।।३९।।
अन्वयार्थ—(जे ) जो मनुष्य ( णहि ) न ही ( दाणं ) दान देते हैं ( गहि ) न ही ( पूया ) पूजा करते हैं ( गाहिं ) न ही ( सीलं ) शील पालते हैं (पहि ) न ही ( गुण ) मूलगुण धारण करते हैं
और ( न ) ( चारितं ) चारित्र पालन करते हैं ( ते ) वे मनुष्य (णेरइया ) नारकी ( कुमाणुसा ) कुमानुष और ( तिरिया ) तिर्यच ( होति ) होते हैं-ऐसा ( जइणा ) जिनदेव ने ( भणिया ) कहा है । ___अर्थ—जो मनुष्य न तो दान देते हैं, न ही पूजा करते हैं, न ही शील पालते हैं, न ही गुण धारण करते हैं और न चारित्र आचरण करते हैं, वे मनुष्य नारकी, कुमानुष और तिर्यंच होते हैं-ऐसा जिनदेव ने कहा है । ___भावार्थ मानव पर्याय की दुर्लभता को जानकर प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह जीवन में पूजा-दान, शील, गुण और चारित्र का आचरण शक्ति अनुसार अवश्य करे 1 यदि नहीं करता है तो उसे दुर्गति का पात्र अवश्य बनना पड़ेगा।