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रयणसार
अर्थ- पूजा-दान आदि के धर्म-द्रव्य का अपहरण करने वाला इच्छिन इष्ट फल को प्राप्त नहीं करता. यदि इच्छित/इष्ट फल को प्राप्त कर भी लेता है, तो यह निश्चित हैं कि वह उसे भोग नहीं पाता । वह व्याधियों का घर बन जाता है । अर्थात् एप्सी स्थिति बन जाती है कि वह अच्छे-अच्छे पदार्थों को भक्षण करना, खाना चाहता है, पर रोग से ऐसा पीड़ित हो जाता है कि "रूनी गेटी और मूंग की दाल का पानी ही खा पाता है'। वह भी डॉक्टर वैद्य द्वारा बताई गई मात्रा में।
धर्मद्रव्य के अपहरण से विकलांग गय-हत्थ-पाद-णासिय-कण्ण-उरंगुल विहीण-दिट्ठीए । जो तिब्ब-दुक्ख-मूलो, पूया-दाणाइ दव्य-हरो ।।३५।।
अन्वयार्थ ( जो ) जो जीव ( पूजा-दाणाइ-दव्व- हरो ) पूजादान आदि के धर्म-द्रव्य का अपहरण करने वाला है- वह ( गयहत्थ-पाद-पासिय-कण्ण-उरंगुल ) हाथ-पैर-नासिका-कान-छाती और अंगुल से हीन और ( विहीण-दिट्ठिीए ) दृष्टि से विहीन/अंधा होता है । और ( तिव्व-दुक्ख-मूलो ) तीव्र दुःख को प्राप्त होता है।
अर्थ-जो जीव पृजा-दान आदि के धर्म द्रव्य का अपहरण करने वाला है, वह हाथ-पैर-नासिका-कान-छाती अंगुली से रहित/हीन और दृष्टि से विहीन/अंधा होता है । और महा/तीव्र दुख को प्राप्त करता है। अर्थात् ऐसा जीव लूला, लँगड़ा, बहरा, गूंगा, विकलांग, अंधा आदि होता हुआ घोर दुखों को प्राप्त करता है।
पूजा-दानादि धर्मकार्यों में अन्तराय करने का फल खय-कुट्ठ-मूल-सूला, लूय-भयंदर-जलोयर-क्खिसिरो। सीदुण्ह वाहिराइ, पूया-दाणंतराय-कम्म-फलं ।। ३६।। __अन्वयार्थ (खय-कुट्ठ-मूल-सूला ) क्षय रोग, कुष्ठ रोग, मूल व्याधि शूल ( लूय ) लूता-वायु का एक रोग अथवा मकड़ी का फरना ( भयंदर ) भगंदर ( जलोयर-क्खिसिरो ) जलोदर-अक्षी/