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रयणसार
अर्थ..इस भरतक्षेत्र में पंचमकाल में यंत्र-मंत्र-तंत्र की प्राप्ति के लिए सेवा/परिचर्या के लिए, पक्षपात से, प्रिय वचन/वाक्पटुता से, प्रतीति। विश्वास/मान, प्रतिष्ठा के लिए दिया हुआ किंचित् भी दान मोक्ष का कारण नहीं है।
दानी के दरिद्रता लोभी के ऐश्वर्य क्यों ? दाणीणं दारिद/दालिदं लोहीणं किं हवेइ मह-इसरियं । उहयाणं पुव्वज्जिय कम्मफलं जाव होई थिरं ।।२९।।
अन्वयार्थ—( दाणीणं ) दानी जीवों के ( दारिदै ) दरिद्रता ( लोहीणं ) लोभी जीवों के ( मह-इसरियं ) महा-ऐश्वर्य ( किं ) क्यों ( हवइ ) होता है ( उहयाणं ) दोनों के ( पुवज्जिय-कम्मफलं ) पूर्वोपार्जित कर्मफल ( जाव ) जब तक ( थिरं ) स्थिर [उदय में ] ( होइ ) रहता है।
अर्थ-लोभी जीवों के महा-ऐश्वर्य और दानी जीवों के दरिद्रता क्यों होती है।देखी जाती है; जब तक दोनों का पूर्वोपार्जित कर्मफल स्थिर [ उदय में ] रहता है अर्थात् लोभी जीवों के महा ऐश्वर्य और दानी के घर महा दरिद्रता तब तक ही देखी जा सकती है जब तक दोनों का पूर्वोपार्जित कर्म उदय में रहता है।
सुख-दुःख कब? धण-धण्णाइ-समिद्धे, सुहं जहा होइ सव्वजीवाणं । मुणि-दाणाइ-समिद्धे, सुहं तहा तं विणा दुक्खं ।।३०।।
अन्वयार्थ-( जहा.) जिस प्रकार ( धण-धण्णाइ-समिद्धे ) धनधान्य आदि की समृद्धि से ( सत्तजीवाणं ) सब जीवों को ( सुहं ) सुख ( होइ ) होता है ( तहा ) उसी प्रकार ( मुणि-दाणाइ-समिद्धे ) मुनि-दान
आदि की समृद्धि से ( सन्चजीवाणं ) सब जीवों को ( सुहं ) सुख होता है ( तं ) मुनि दान ( विणा ) बिना ( दुक्खं ) दुःख होता है।